‘गांधी एक असंभव संभावना’ के लेखक सुधीर चन्द्र से नितिन ठाकुर की बातचीत
सुधीर चन्द्र ने एक किताब लिखी थी– ‘गांधी एक असम्भव संभावना’. यह किताब गांधी के अंतिम दिनों का मार्मिक दस्तावेज है. लेकिन बात केवल अंतिम दिनों की नहीं, आज हम गांधी की जिन्दगी से जुड़े सबसे मुश्किल सवालों पर चर्चा करेंगे. क्या गांधी ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में अहिंसक संघर्ष के अपने सिद्धांत की हार स्वीकार कर ली थी? गाँधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों की हकीकत क्या है? किसने कर दी थी गांधी की हत्या की भविष्यवाणी? आइये, इतिहास के इन पन्नों से रूबरू हों।
प्रश्न– क्या गांधी को एक असफल संत या असफल नेता मानना ठीक है? अपने आखिरी दिनों में उन्होंने खुद ही खुद को असफल माना. उन्होंने यह भी माना कि उनका प्रतिरोध अहिंसक नहीं रहकर, निष्क्रिय हो गया था. अपने जीवन के 32 साल, जो उन्होंने हिंदुस्तान में संघर्ष करते हुए बिताये, वह उनके निष्क्रिय प्रतिरोध का काल था अहिंसक प्रतिरोध का?
उत्तर– यह कहना बिलकुल अनुचित होगा कि गांधी निष्क्रिय प्रतिरोध कर रहे थे. उनके संघर्ष का स्वरूप निर्विवाद रूप से अहिंसक प्रतिरोध का था. यह उनको बाद में लगा कि जो लोग उनके साथ संघर्ष में शामिल थे, वे अहिंसा को नहीं साध पाए, दरअसल वही लोग निष्क्रिय प्रतिरोध कर रहे थे. गांधी तो अहिंसक प्रतिरोध ही कर रहे थे. यह जरूर है कि एक हद तक गांधी ने खुद को असफल माना, लेकिन इसके पीछे वजह ये थी कि जब आज़ादी बिलकुल नजदीक आकर खड़ी थी, तब देश में जो हिंसा और अमानवीयता का विस्फोट हुआ, वह उनके लिए असहनीय और अकल्पनीय था. वे दुखद आश्चर्य की भावना से भर उठे थे कि आखिर यह संभव कैसे हुआ. वे चिंतित थे. उनको लगा कि 32 साल के संघर्ष में अहिंसा की सार्वजनिक साधना की परिणति अगर इतनी रक्तिम है, तो फिर यह असफलता ही हुई. बहुत चिंतन–मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इतने समय तक वे खुद, सारा देश और सारी दुनिया जिसे अहिंसक प्रतिरोध कह रही थी, वह अहिंसक प्रतिरोध था ही नहीं, निष्क्रिय प्रतिरोध था. लेकिन इससे गांधी असफल नहीं हो जाते. कोई भी महान व्यक्ति, जो इतना बड़ा विचार लेकर आता है और केवल विचार के धरातल पर ही नहीं छोड़ देता, उसे अमल में भी लाता है, उसे एक विशाल आन्दोलन में बदल देता है, उन्होंने निश्चित सफलता की सम्भावना तो इसी से दिखा दी. अपने समय में यदि व्यक्ति गांधी असफल भी हो जाता है, तो उससे यह सिद्ध नहीं होता कि गांधी का विचार असफल हो गया. क्योंकि गांधी तो मरने के बाद भी नहीं मरे. जब तक यह विचार जिंदा रहेगा और हमारे मनों को आंदोलित करता रहेगा, तबतक यह कहना गलत होगा कि गांधी असफल रहे. हो सकता है कि चार, पांच दशक के बाद हमें यह कहना पड़े कि गांधी संसार के सबसे सफल नेता थे.
प्रश्न– कभी नेल्सन मंडेला के रूप में, कभी मार्टिन लूथर किंग के रूप में या कभी बराक ओबामा (हमेशा जिनकी मेज पर गाँधी की प्रतिमा रहती थी) के शब्दों में गांधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो सफल होते दीखते हैं, लेकिन जब वे खुद ये कहते हैं कि राष्ट्रीय आन्दोलन में वे खुद तो अहिंसक प्रतिरोध कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस सहित उनके साथ संघर्ष कर रहे लोग दरअसल निष्क्रिय प्रतिरोध कर रहे थे, तो ये क्यों न मानें कि कम से कम अपने अनुयायियों, अपने समर्थकों, अपने देशवासियों पर तो अपनी तपस्या का प्रभाव डालने में वे असफल रहे ही? अपने ही लोगों को अपनी बात समझाने में क्या वे नाकाम नहीं रहे?
उत्तर– मैं मानता हूं कि गांधी की अहिंसा को नेल्सन मंडेला या मार्टिन लूथर किंग के रूप में सफल बताना ठीक नहीं है. क्योंकि अमेरिका या दक्षिण अफ्रीका में जो कुछ हुआ, उसे अहिंसा की सफलता तो नहीं कह सकते. मान लीजिए, देश का बंटवारा न हुआ होता और साम्प्रदायिक हिंसा का वह ज्वालामुखी न फूटता, तब तो हम निस्संकोच कह रहे होते कि गांधी सफल रहे. भले दूसरे कई स्तरों पर हमें यह लगता कि देश ने अहिंसा को नहीं माना. ये मानने के अनेक कारण हो सकते हैं कि गांधी की अहिंसा सफल नहीं रही. उस दौर में गांधी, देश की अवाम और बाकी सभी के नेक इरादों के बावजूद अभी तक हमारे पास बड़े पैमाने पर अहिंसा की समग्र सफलता का कोई उदाहरण भी नहीं है. छोटे पैमानों पर भले अनेक उदाहरण मिलेंगे, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि अहिंसा संभव नहीं है.
प्रश्न– इतिहास के पन्नों पर दर्ज है कि भगत सिंह जैसा क्रांतिकारी गांधी से सहमत नहीं था, सुभाषचन्द्र बोस जैसा नेता भी उनसे सहमत नहीं था. दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्ष की सफलता के बाद भारत लौटे गांधी के पास संघर्ष का एक रास्ता तो था ही. ऐसे में उनके गुरु गोखले उनसे क्यों नहीं सहमत हो पा रहे थे? आखिर उन्होंने क्यों कह दिया कि गांधी का तरीका यहाँ नहीं चलेगा? वे क्यों नहीं भरोसा कर पा रहे थे?
उत्तर– गोखले बहुत साफ़ देख पा रहे थे कि उनके बाद की भारत की राजनीति गांधी के ही हाथ में थी. उनकी परेशानी यह थी कि गांधी ने भारत आते ही यह घोषणा कर दी कि मैं भारत में भी दक्षिण अफ्रीका के अपने प्रयोग दोहराऊंगा. ये बात गोखले के गले नहीं उतर रही थी और ऐसा मानने वाले गोखले अकेले आदमी नहीं थे. उनके अलावा भी अनेक लोग थे, जो इस विचार के थे कि भारत और दक्षिण अफ्रीका के भौगोलिक, सामाजिक और राजनैतिक हालात समान न होने के कारण दक्षिण अफ्रीका के प्रयोग भारत में सफल नहीं होंगे. असल में यह वह दौर था, जब देश में गांधी जी की खिल्ली उड़ाई जा रही थी. गांधी जी खुद भी खुद को शेखचिल्ली कह चुके थे. यानी गांधी जी 1916 में शेखचिल्ली थे. उनकी बात समझ में सबको आ रही थी, लेकिन उनको मूर्ख कहकर उनकी आदर्शवादी राजनीति से पल्ला झाड़ लेना सबको सुविधाजनक लग रहा था. तबतक वे हिन्द स्वराज भी लिख चुके थे, जिसे एक मूर्ख आदमी की रचना कहकर गोखले भी खारिज कर चुके थे. सौ सवा सौ साल बीत जाने के बाद आज भी हिन्द स्वराज के तर्क लोगों को समझ में नहीं आते. लेकिन ध्यान दीजियेगा, विज्ञान और विकास जब मनुष्यता को विनाश के कगार पर ला खड़ा करते हैं, अचानक जब युद्ध शुरू हो जाते हैं, संहार मच जाता है, हिंसा के कुचक्र चलने लगते हैं, कोविड जैसी महामारी सारी मनुष्यता को घेरने लगती है, तो वही तर्क सबको समझ में आने लगते हैं. भारत आने के दो साल बाद ही 1918 में जब गांधी रौलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह की घोषणा करते हैं, तो अचानक से 1916 के मूर्ख की बात सभी की समझ में आने लगती है. 1920 में जब देशव्यापी असहयोग आन्दोलन शुरू हो गया, तो गोखले समेत देश की तमाम लीडरशिप को लगने लगा कि भारत में दक्षिण अफ्रीका संभव है. 2022 में जब गाँधी ने चौरीचौरा आन्दोलन वापस ले लिया तो उसका विरोध जरूर हुआ, लेकिन आन्दोलन में जनता की भागीदारी देखकर, 1916 में गांधी की खिल्ली उड़ाने वालों की आँखें चुंधियाई हुई थीं. अचानक से सबको लगने लगा कि दक्षिण अफ्रीका की सफलता भारत में संभव है. 1929-30 में सविनय अवज्ञा के दौर में एक बार फिर लग गया कि हाँ, भारत में भी दक्षिण अफ्रीका संभव है. लेकिन विद्रूप का वह दौर एक बार फिर लौटा. 1947 में जैसे ही देश आज़ाद हुआ, देश के कर्णधार, चाहे वे पटेल हों या नेहरू, सब कहने लगे कि बापू, अहिंसा संभव नहीं है. अब सोचना तो हमें है कि हमारी वे कौन सी कमजोरियां हैं, जिनके कारण समूचे विश्व में स्वीकार्य इतने बड़े विचार के साथ हम इस तरह खेलते रहे. कभी लगने लगा कि वाह! क्या रास्ता है.. और कभी लगने लगा कि यह तो पागलपन है.
प्रश्न– ऐसा भी हो सकता है क्या कि कोई रास्ता, कोई विचार किसी ख़ास परिस्थिति में बहुत प्रासंगिक रहा, सफल हुआ और किसी दूसरी परिस्थिति में वही विचार न तो प्रासंगिक रह गया, न प्रभावी?
उत्तर– यह बात कहने–सुनने में ठीक लग सकती है, लेकिन यह भी अपनी–अपनी सुविधा की ही बात लगती है. सोचने की बात यह है कि आखिर कोई तो कारण है कि गांधी 1918, 20, 22, 29 और 30 का इंतज़ार नहीं करते. लोग उन्हें पागल कहेंगे, यह ख्याल छोडकर 1916 में ही पूरी दृढ़ता से खुद को व्यक्त कर देते हैं. आप इस बात को ऐसे समझिये कि देश में साम्प्रदायिक हिंसा फूट पड़ी है, मजहबी दुराव और संघर्ष चरम पर हैं. इतना ही नहीं, दो–दो परमाणु विस्फोटों से दुनिया दहल चुकी है, लेकिन एक आदमी है, जो अपनी आस्था नहीं छोड़ रहा है, अपने वैचारिक अधिष्ठान से रंचमात्र डिगने को तैयार नहीं है. अगर ऐसा एक भी विवेकशील पुरुष दुनिया में है, जो प्रतिकूल हो रहे समय की परवाह नहीं कर रहा, विचार की उत्कृष्टता को प्रभावशील करने में जुटा हुआ है, तो उसको आप अपनी सुविधा से नहीं बरत नहीं सकते. आज की दुनिया में अगर वैसा विवेक होता, तो कम से कम इस कोविड के दौर के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होते कि आधुनिक विज्ञान में हमारी जो अनन्य आस्था है, उसका कोई तार्किक आधार नहीं है. यह विज्ञान तो अपने आप में अवैज्ञानिक सिद्ध हो चुका. इस महामारी ने जितने विशाल पैमाने पर संहार किया है, उसके लिए हम प्रकृति को कितना भी दोषी ठहराते रहें, लेकिन अगर कोविड के संहार ने हमें नहीं सिखाया, दो–दो परमाणु विस्फोटों नें हमें नहीं सिखाया, प्रकृति के अंतहीन दोहन से हम कुछ नहीं सीख पा रहे, रोज बढ़ रही हिंसा की प्रवृत्ति, नाश हो चुका पानी और हवा हमें कुछ नहीं सिखा पा रहे, तो अनुकूल होकर समय हमें क्या सिखा देगा? सिखाएगा तो वह प्रतिकूल समय ही, जो कम से कम हमसे हमारी वैचारिक निष्ठा का परिचय तो कराता है.
प्रश्न– कृपया एक चीज़ स्पष्ट करें कि यह अहिंसात्मक प्रतिरोध और यह निष्क्रिय प्रतिरोध; दोनों एकदूसरे के कितने दूर या कितने नजदीक हैं?
उत्तर– गाँधी की दृष्टि से देखें तो ये दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हैं. दोनों में बहुत सीधा–सादा और बुनियादी फर्क है. असल में निष्क्रिय प्रतिरोध और अहिंसक सत्याग्रह के बीच का अंतर गांधी को भी बहुत देर से समझ में आया. 1909 में हिन्द स्वराज लिखने तक तो वे भी पैसिव रेजिस्टेंस की ही हिमायत करते हैं, लेकिन धीरे–धीरे उनको यह समझ में आने लगा कि निष्क्रिय प्रतिरोध में जो अहिंसा है, वह डरपोक की अहिंसा है और सत्याग्रह की अहिंसा बहादुर की अहिंसा है. गांधी ने एनी बेसेंट का हवाला देते हुए कहा था कि गांधी जानते थे कि अंग्रेजों की तरफ फेंके गये एक रोड़े का जवाब भी गोली से मिलेगा और एटम बम बनाने की विद्या हमारे पास थी नहीं, इसलिए अहिंसा को हथियार बनाने वाले गांधी का सिक्का चल गया. कायर की अहिंसा के भीतर कहीं न कहीं दमित हिंसा होती है. अवसर मिलते ही वह उभरकर बाहर आ जाती है. फ्रायड ने इसी को ‘रिवेंज ऑफ़ द रिप्रेस्ड’ कहा है. आपको पता भी नहीं चल पाटा कि कब, कैसे और कहाँ से दमित इच्छाएं उभर आती हैं. अंग्रेज के जाते ही कायर की अहिंसा, हिंसा बनकर फूट पड़ेगी. यह बुनियादी अंतर है दोनों में. अहिंसा को यदि हम केवल व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार करेंगे और आदर्श भूल जायेंगे, तो वह वास्तविक अहिंसा नहीं होगी. इसके पीछे का अन्तर्निहित तर्क यह है कि जैसे ही हालात आपके अनुकूल होंगे, अहिंसा आपसे छूट जायेगी.
प्रश्न– यह तो तय है कि गाँधी के दोनों बहुचर्चित अनुयायी नेहरू और पटेल उनके आदर्शों से प्रभावित होकर ही उनके अनुयायी बने. फिर ऐसा क्या हुआ कि आज़ादी के बाद की चुनौतियों के सामने खड़े होते ही दोनों को ही लगने लगा कि अब अहिंसा का विचार व्यावहारिक नहीं रह गया?
उत्तर– आप देखेंगे कि नेहरू जब गांधी के लिए कुछ भी लिखते या बोलते हैं, तो उनके लिए एक से एक और अनेक विलक्षण विशेषणों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वही नेहरू अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखते हैं कि उन दिनों हम मित्र लोग आपस में बातें किया करते थे कि ये जो इनका सनकीपन है, इससे हमें सचेत रहना होगा और आज़ादी मिल जाने के बाद तो इनको बिलकुल बढ़ावा नहीं देना होगा. ऐसा वे नैनी जेल की अपनी डायरी में भी लिखते हैं. ऐसा नहीं है कि वे उनकी इज्जत नहीं कर रहे हैं. बिलकुल घर–परिवार वाली स्थिति है कि घर का बुज़ुर्ग सबके सुख चैन के लिए परेशान है और सब मिलकर अकेले उससे परेशान हैं. बुज़ुर्ग अभिभावक के लिए सबके मन में आदर है, प्रेम भी है. लेकिन सब तय यही करते हैं कि अब इनके हिसाब से नहीं चलना है. इनको आज़ादी दिलानी थी, ये दिला चुके. अब इसका सत्यानाश कैसे करना है, वह हमलोग आपस में मिलकर तय करेंगे. क्योंकि ये अब सठिया गये हैं. यहाँ तक कि गांधी की हत्या के तत्काल बाद, जीवन भर उनके पीछे चलने वालों की त्वरित प्रतिक्रिया क्या रही होगी, अगर इस पर थोड़ा गहराई से विचार करें, तो पायेंगे कि हत्या की खबर सुनकर सारे के सारे जहाँ एक तरफ गहरे दुःख के सागर में डूब गये, वहीं दूसरी तरफ उन सबने अचानक से एक बहुत तीव्र किस्म की राहत भी महसूस की कि हमारे रास्ते का काँटा निकल गया. उन लोगों की मनःस्थिति का इससे ज्यादा सही वर्णन नहीं हो सकता. केवल यही दोनों नहीं, दूसरे बड़े नेता भी, बल्कि कहूँ तो जनता भी अब गाँधी से, उनके आदर्शों से अघा गयी थी, जैसे बहुत सारी मिठाई खा लेने पर मन अघा जाता है, लगभग ऊब जाना कहेंगे इसे, भारत के लोग भी कहीं न कहीं ऊब रहे थे गांधी से, गांधी की अच्छाइयों से. सुविख्यात साहित्यकार कृष्णा सोबती 1948 में 21 वर्ष की थीं. उन्होंने गाँधी की हत्या को पितृवध कहा. जैसा हम सबके अपने घर परिवारों में होता है, हम अपने बुजुर्गों से ऊब जाते हैं. शारीरिक हत्या भले न करें, पर मानस हत्या कई बार कर चुके होते हैं, इसलिए हमें इस द्वंद्व से निकल जाना चाहिए कि गांधी को गोडसे ने मारा. असल में तो गांधी को हम सबने मिलकर मारा. गांधी के प्रति गांधी के लोगों का रुख इतना पेचीदा है कि उसे ठीक–ठीक समझने के लिए हमें इन लोगों के साथ भी पूरी सहानुभूति रखकर सोचना पड़ेगा. नेहरू या पटेल के खिलाफ फतवा दे देना बहुत आसान काम हो जाएगा. हमें खुद को उनकी जगह रखकर सोचना होगा. इस तरह सोचकर देखिये कि अगर उस समय हम देश के प्रधानमन्त्री होते और गांधी हमसे कहते कि देश के विकास का मॉडल गाँव को केंद्र में रखकर बनाओ. बड़े उद्योग लगाओ, लेकिन वही लगाओ, जो बहुत जरूरी हों, उसमें भी उसकी संचालन व्यवस्था विकेन्द्रित होनी चाहिए, तो क्या हम मान लेते? क्या आज भी मानने को तैयार हैं? नेहरू और पटेल ने तो वही किया, जो उस समय पश्चिमी शिक्षा में दीक्षित मध्य वर्ग कर सकता था या आज भी कर सकता है.