प्रेम प्रकाश
मुझे 1984 और उसके बाद का दौर याद आता है तो रोमांच होता है. उन दिनों मेरे गाँव से चलने वाली बस 7 रूपये के किराये में हमें बनारस पहुंचा देती थी, जहाँ से आने के लिए वही बसें आज 120 रूपये लेती हैं. शहर- बाज़ारों में कहीं-कहीं एक डिब्बा दीखता था, जिसमें बिजली का तार और एंटीना नाम का जुगाड़ लगा देने से अबतक चित्रों में दिखने वाले आदमी, औरतें, बच्चे चलते फिरते और नाचते गाते नजर आते थे. उसे टीवी कहते थे. हम जब गाँव में जाकर यह बात बताते तो हमारा गाँव आँखें फाडकर बड़े अचरज और कौतूहल से हमारी तरफ देखता! देश में टेलीफोन तो कबका आ चुका था, लेकिन उस समय तक भी लोक व्यवहार में केवल उसके चित्र देखे जाते थे. सचमुच के फोन तो सरकारी कार्यालयों और बड़े लोगों के घर की ही शोभा थे. एक शहर से दूसरे शहर में बात करनी हो तो ट्रंक कॉल बुक की जाती थी, जो कनेक्ट होने में दो तीन दिन या कभी-कभी तो हफ्तों का समय भी ले लेती थी. हमारे गाँव, देहात, शहरों में तब कम्प्यूटर नाम की एक मशीन का शोर मचा हुआ था, जो हजारों, लाखों का गुणा भाग सेकेंडों में कर देती थी. इंदिरा जी के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री हुए तो यह शोर और बड़ा हुआ. प्रधानमन्त्री अमेरिका से सुपर कम्प्यूटर ले आयेंगे. कैलकुलेटर तो उसके आगे कुछ भी नहीं! सैम पित्रोदा नाम का एक आदमी है. वो खुद अमेरिका में ही रहते हैं. एकदम पक्की बात हो गयी है. राजीव गाँधी ने खुद फोन करके सैम पित्रोदा को बोल दिया है. उन्हीं के कहने से तो अमेरिका राजी हुआ है. सैम पित्रोदा बहुत बड़े जानकार आदमी हैं, तभी तो राजीव गाँधी से उनकी दोस्ती है. हमारे गाँवों खेतों की पगडंडियों और शहरों मुहल्लों गलियों में इसी तरह बातें हुआ करती थीं. यह वह समय था, जब हमारी पीढ़ी जवान हो रही थी. सपने देखने का समय था. इस तरह की बातें मन का सारा आकर्षण चुरा लेती थीं. उन दिनों में संचार की दुनिया में जो नीव डाली गयी, उसके लिए दो ही चहरे आज भी जेहन में कौंधते हैं-एक राजीव जी और एक सैम साहब. ये दोनों हमारी पीढ़ी के यूथ आइकॉन रहे हैं. उस शुरुआत ने कम से कम भारत में तो सचमुच क्रांति ला दी थी. संचार क्रांति आई तो देश और दुनिया का चेहरा बदल गया. संचार के क्षेत्र में उतरी व्यापारिक कंपनियों ने नारा दिया-कर लो दुनिया मुट्ठी में. सचमुच यह सबकुछ बिलकुल नया अनुभव था. इस दिशा में देश कुछ इस तेजी से आगे बढ़ा कि इक्कीसवीं सदी के शुरूआती सालों में ही मोबाइल फोन की आमद हुई. सुदूर दुनिया के अनेक देशों, शहरों और गाँव-गिरांव में बैठे लोग एकदूसरे के साथ हर मुट्ठी में समा जाने वाले एक यंत्र के जरिये जुड़ गये और हमने जाना कि उसे मोबाइल सेलफोन कहते हैं, जो कुछ ही साल बीतते बीतते हर जेब की जीनत बन गया.
विज्ञान वरदान है या अभिशाप? अपने बचपन की पढाई में इस विषय पर हमें निबन्ध लिखने के सवाल पूछे जाते थे. विज्ञान की खोज इस कम्प्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल हमने प्रत्यक्ष तौर पर वरदान बनते भी देखा और अभिशाप बनते भी. जब देश में सोशल मीडिया का प्रसार हुआ तो वह भी एक रोमांचक दौर था. अपने मन की अभिव्यक्तियों को छोटे या बड़े स्वरूप में साडी दुनिया के सामने एक साथ परोस देने और उस पर त्वरित प्रतिक्रियाएं पाने का रोमांच अकथनीय अनुभव था. लेकिन अफसोसनाक अनुभव यह रहा कि इनके सदुपयोग का कालखंड छोटा ही रहा. 2014 के बाद नहीं, पहले से ही इस वैज्ञानिक सुविधा का संगठित दुरूपयोग किये जाने की तैयारियां भी संगठित रूप में की गयीं और झूठ, फेक, फोटोशॉप प्रॉक्सी जैसे शब्द सोश्ल मीडिया की दुनिया में तैरने लगे. जब इन शक्तियों ने सत्ता प्रतिष्ठान पर नियंत्रण स्थापित कर लिया, तब एक न्य टर्म सुनाई पड़ा-ट्रोल आर्मी. यह सत्ता के समर्थकों को जोडकर बनने वाले समूह थे, जिन्हें कालान्तर में सत्ता की ताकत भी समर्थन मिला और ये लोग बेलगाम हो गये. ये लोग इंटरनेट पर, खासकर सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर लोगों को जानबूझकर उकसाने, भड़काने या मानसिक रूप से परेशान करने के उद्देश्य से नकारात्मक टिप्पणियां, अपमानजनक संदेश या झूठी जानकारी फैलाने का काम करते हैं। यह समूह अक्सर कुत्सित राजनीतिक उद्देश्यों से संचालित होते हैं और सामाजिक तथा सांस्कृतिक मुद्दों पर भी विमर्श को भटकाने या किसी खास विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए सक्रिय तौर पर किसी गिरोह की तरह काम करते हैं। ट्रोल आर्मी के सदस्य आमतौर पर फेक प्रोफाइल का इस्तेमाल करते हैं और उनका मकसद किसी खास व्यक्ति, समूह या विचारधारा की छवि को नुकसान पहुंचाना या संगठित रूप से उन्हें बदनाम करना होता है।
एक मौजूं सवाल यह पैदा हुआ है कि इस ट्रोल आर्मी का सामना सभ्य समाज किन तरीकों, किन उपायों, किन रास्तों और किन औंजारों से करे. हम गांधी के लोग हैं. गांधी हमारे वैचारिक गोत्र का नाम है. अपनी किसी भी समस्या से जूझने के लिए हम गाँधी से ही रास्ता पूछते हैं और गाँधी से ही रास्ता पाते भी हैं. गाँधी के तीन बंदरों के रूपक से कौन अपरिचित होगा भला! गाँधी का एक बन्दर अपना कान, एक बन्दर अपनी आँखें और एक बन्दर अपना मुंह बंद रखकर बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो और बुरा मत कहो का संदेश देते हैं. आइये, विचार करें कि आज की इन परिस्थितियों में इस ट्रोल आर्मी का मुकाबला करने के लिए हम इस रूपक से क्या सन्देश ग्रहण कर सकते हैं.
पहला सिद्धांत: कुछ मत सुनो
ट्रोलर्स का मुख्य उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना और उन्हें परेशान करना होता है। हमें समझना होगा कि उनका यह प्रयास केवल एक हृदयहीन खेल है, जो उनके स्वयं के अंतर्मन की अराजकता को दर्शाता है। सोचिए, जब कोई ट्रोल आपको अपमानित करता है, तो उसके शब्दों का वास्तव में क्या अर्थ है? क्या वे आपके आत्मसम्मान को प्रभावित कर सकते हैं? अगर हम उनकी बातों को सुनने का निर्णय लेते हैं, तो हम अपनी मानसिक शांति को खोने का खतरा उठाते हैं। यहाँ हमें गांधी जी का पहला सिद्धांत याद आता है कि उनकी सुनो ही मत। जब हम उनकी बातों को अनसुना करते हैं, तो अपने मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा करते हैं। यह एक साधारण लेकिन प्रभावी रणनीति हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति आपके विचारों का मजाक उड़ाता है, तो आप उसकी नकारात्मकता का जवाब देने के बजाय अपने विचार को और मजबूती से प्रस्तुत कर सकते हैं, क्योंकि सकारात्मकता का प्रभाव हमेशा नकारात्मकता से अधिक होता है। हम नकारात्मकता को पूरी तरह से समाप्त तो नहीं कर सकते, लेकिन उसे अनदेखा करके अपने भीतर एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में, हम अपने और दूसरों के लिए एक बेहतर माहौल तैयार कर सकते हैं।
दूसरा सिद्धांत: कुछ मत देखो
यह कितना जरूरी और कितना सही है कि अपने मानसिक स्वास्थ्य का खतरा उठाकर भी हम उन नकारात्मक विचारों को देखते रहें? क्या यह हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित नहीं करता? हमें चाहिए कि हम अपने फीड को स्वच्छ रखने का प्रयास करें। ऐसे अकाउंट्स को अनफॉलो करें जो निरंतर नकारात्मकता फैलाते हैं। हम यह भी देख सकते हैं कि जब हम सकारात्मकता की ओर बढ़ते हैं, तो हमारे आस-पास का वातावरण भी कैसे बदलता है। हमें ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायक और रचनात्मक सामग्री को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस प्रकार, हम न केवल अपने मन की शांति बनाए रख सकते हैं, बल्कि दूसरों को भी प्रेरित कर सकते हैं। अगर ट्रोलर्स को यह समझाया जा सके कि उनकी नकारात्मकता से न केवल उनकी खुद की छवि धूमिल होती है, बल्कि यह समाज में भी घृणा फैलाने का कारण बनती है, तो शायद वे भी समझें कि सकारात्मकता का पालन करना कितना महत्वपूर्ण है।
तीसरा सिद्धांत: कुछ मत कहो
अब हम गांधी जी के तीसरे सिद्धांत ‘कुछ मत कहो’ की ओर आते हैं। जब ट्रोलर्स आपके प्रति अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं, तो हमें उनकी भाषा में उतरने से बचना चाहिए। इससे केवल नकारात्मकता का बढ़ावा मिलता है। जब आप किसी ट्रोल को उत्तर देने का निर्णय लेते हैं, तो यह महत्वपूर्ण है कि आप इसे कितनी विनम्रता और तथ्यात्मकता के साथ करते हैं। आपकी प्रतिक्रिया से न केवल आपकी व्यक्तिगत छवि प्रभावित होती है, बल्कि ट्रोलर्स को यह भी दिखाती है कि अच्छे व्यवहार का क्या महत्व है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति आपकी व्यक्तिगत राय का मजाक उड़ाता है, तो आप विनम्रता से यह कह सकते हैं कि आपका दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है, लेकिन मैं अपने विचारों पर कायम रहूंगा। इस प्रकार, आप न केवल अपनी बात रख रहे हैं, बल्कि उन्हें भी यह समझा रहे हैं कि संवाद का स्तर ऊँचा होना चाहिए। हमें अपनी शब्दावली को हर हाल में सकारात्मक बनाए रखना चाहिए। अगर हम ट्रोलर्स को उनके गलत व्यवहार का प्रभावी संकेत दे सकें, तो हो सकता है कि वे अपने तौर तरीके में सुधार लायें। आखिर गांधी भी हमें बुरे से बुरे व्यक्ति की अच्छाई में भरोसा रखने की सीख देते हैं.
ट्रोलर्स को समझाने के कुछ टिप्स
अब सवाल यह उठता है कि इन ट्रोलर्स को हम समझाने की कोशिश किस प्रकार करें कि वे अच्छे व्यवहार का पालन करें। सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि ट्रोलिंग केवल एक मानसिकता का परिणाम है। कई बार ट्रोल्स खुद तनाव, असुरक्षा या निराशा का शिकार होते हैं। इसलिए संवेदनशीलता के साथ उन्हें संबोधित करना महत्वपूर्ण है। जब आप ट्रोलर्स को यह बताने का प्रयास करते हैं कि उनका व्यवहार न केवल उन्हें नुकसान पहुँचाता है, बल्कि यह समाज पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है, तो संभवतः वे विचारशील हो सकते हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी का सामना करना एक चुनौती ही है, लेकिन बापू के तीन बंदरों के इस रूपक के जरिये हम इसे समझदारी से संभाल सकते हैं। सभी जानते और मानते हैं कि हम सभी को मिलकर एक सकारात्मक और सहिष्णु समाज की दिशा में आगे बढ़ना कितना जरूरी है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी एक बेहतर वातावरण बनाएँ।