कौसानी की हवा में सर्वोदय की हुंकार : ‘यूथ फॉर ट्रुथ’ का संकल्प

कौसानी के अनासक्ति आश्रम में, जहाँ पहाड़ों की ठंडी हवाएँ इंसान के भीतर की नकारात्मक तपिस को दूर करती है, यहीं ‘यूथ फॉर ट्रुथ’ ने तीन दिवसीय शिविर का आयोजन किया – 7 से 9 जून तक। देश भर से युवासाथी और वरिष्ठजन, जिनके दिलों में दुनिया बदलने की हूक और कुछ आशा लिए आये थे, यहाँ जमा हुए। संवाद करने, चर्चा करने, और एक-दूसरे को समझने भी। मगर सच पूछो, तो इस सबके बीच जो चीज़ सबसे भली लगी, वह थी दो पीढ़ियों का आमना-सामना। युवा, जिनके खून में उबाल है, और वरिष्ठ, जिनके अनुभव की किताबें लगातार मोटी होती जा रही हैं – दोनों एक-दूसरे से सीखते रहें। खालीपन, जो कई दिनों से दोनों के बीच पसरा था, तीन दिनों के लिए जैसे पिघल गया। दोनों ने एक-दूसरे से कुछ न कुछ सीखा जरूर। शिविर में कई बातें हुईं, जैसे दुनिया बदलने की बिसात बिछ रही हो। कितना कुछ बदलेगा, यह तो वक्त ही बताएगा, मगर वहाँ की हवा में गजब की ऊर्जा थी, ऐसी ऊर्जा जो शायद कुछ कर गुजरने की जिद लिए थी। 7 जून, 1893 की वह तारीख, जो इतिहास के पन्नों में मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ की ओर ले जाने वाली पहली सीढ़ी बनी। पीटरमैरिट्जबर्ग में, प्रिटोरिया जाने वाली ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उन्हें जबरन अपमानित कर बाहर फेंक दिया गया। उस समय न सिर्फ एक व्यक्ति का आत्मसम्मान जागा, बल्कि एक क्रांति का बीज रोपण भी हुआ। यह वही दिन है जिसने गांधीजी के भीतर अहिंसा के बीज बोए। इसके ठीक 132वें साल, 7 जून 2025 को कौसानी के अनासक्ति आश्रम में यूथ फॉर ट्रुथ ने तीन-दिवसीय शिविर की शुरुआत की, उस ऐतिहासिक दिन के विचार भाव को फिर से याद करते हुए। इसके अलावा आज से ठीक पचास साल पहले भी, 1975 में, इसी जगह, इसी महीने, इसी दिन, एक और शिविर हुआ था। नाम था – प्रतिनिधि कार्यकर्ता शिविर। केंद्रीय गांधी स्मारक निधि ने इसे आयोजित किया था, और श्रीमन्नारायण ने इसकी अध्यक्षता की थी। उस समय भी करीब पचास-से ज्यादा लोग जमा हुए थे। तब भी बातें थीं – रचनात्मक कार्यकर्ताओं का विकास, समाज का परिवर्तन, और भी बहुत कुछ। बात वही है, बस चेहरे बदल गए। पचास साल पहले भी इंसान वही सवाल लिए भटक रहा था, और आज भी। मगर समझने वाली बात यह है कि इन सवालों के जवाब ढूँढने की जिद में जो कोशिश सजती है, वही तो जिंदगी है। गांधीजी ने जिस अपमान को सत्य और अहिंसा का हथियार बनाया था; यह शिविर भी युवाओं और वरिष्ठों के लिए ऐसा ही एक मोड़ साबित हो, जहाँ से वे मिलकर समाज में बदलाव की नयी इबारत लिखें। तीन दिनों तक चले यूथ फ़ॉर ट्रुथ द्वारा आयोजित ट्रेनिंग कैम्प में युवाओं ने वरिष्ठजनों से तीन प्रमुख बातों पर संवाद किया – युवाओं की वर्तमान चुनौतियाँ, वरिष्ठजनों व गांधी संस्थाओं से अपेक्षाएँ तथा गांधीजी से संबंधित फैली भ्रांतियों का निवारण। उक्त तीनों विषयों पर गंभीर चर्चाओं के पश्चात, सभी प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से कुछ घोषणाएँ पारित कीं और यह संकल्प लिया कि देशभर के गांधीजन इन कार्यक्रमों को पूरी निष्ठा और निरंतरता के साथ लागू करेंगे।

कौसानी की यह भूमि, जहाँ गांधी ने अनासक्ति योग की गूढ़ बातें कागज़ पर उतारीं, जहाँ सरला बहन ने अपनी कर्मठ साधना की, और जहाँ सुमित्रानंदन पंत की कविताओं ने छायावाद को जन्म दिया – उसी धरती पर शराब की दुकानों का काला साया! यूथ फॉर ट्रुथ के नौजवान, वरिष्ठ गांधी चिंतक, महिलाएं, लक्ष्मी आश्रम की बहनें और समाज के लिए जीने-मरने वाले कार्यकर्ता – सब एकजुट हुए। पंत मार्ग से कौसानी तिराहे तक, उनका जुलूस निकला, गुस्से की लहरें हवा में तैर रही थीं। शराब की दुकान के सामने खड़े होकर सबने नारे लगाए, मानो हर नारा उस काली बोतल के स्वप्नों को चूर-चूर करने का संकल्प हो। प्रदर्शनकारियों की आवाज़ में गुस्सा था, दर्द था, और फैसला था। युवा, वरिष्ठजन – सबके चेहरों पर वही जिद, वही आग। शराबबंदी चाहिए! ये दुकानें बंद हों! उनका हुंकार कौसानी की वादियों में गूंजा। अनुमति देने वाले तंत्र को चेतावनी, दुकान मालिकों को खुली चुनौती – शराब के हक में एक भी कदम बर्दाश्त नहीं! कौसानी की गलियों में ये जंग सिर्फ शराब के खिलाफ नहीं थी ; ये उस संस्कृति की रक्षा की भी लड़ाई थी, जो इस जगह की पहचान है। वैसे कितना कुछ बदलेगा, यह वक्त बताएगा, मगर कौसानी की हवा में गूंजती वह ऊर्जा यकीनन कुछ बड़ा करने का वादा लिए थी। हमारे पुरखों ने कोशिश की थी, खून-पसीना बहाया था। हम भी वही करने की कोशिश कर रहे हैं। सालों पहले का ज़माना? वह तो बीत गया, भले ही बातें वही हों – समाज सुधार, दुनिया बदलने की हसरत। मगर हम, हर साँस के साथ, हर आखिरी हिचकी (रुकावटों) के साथ, पानी की घूंट लेकर नयी शुरुआत तो कर ही सकते हैं। अगले साल की योजनाएँ बना लो, कागजों पर स्याही उड़ेल दो, और फिर? बुराई ने तो रंग बदल लिया है, साँप की तरह केंचुल उतारकर नयी चमक में आ गई है। हमारी नीति का क्या? बोलो बहुत, करो थोड़ा। यही नहीं होना चाहिए शिविर ने यह बताया। कौसानी के अनासक्ति आश्रम में, जहाँ हवा में आंदोलन की खुशबू आज भी महसूस की जा सकती है। वही जगह, जहाँ सत्तर के दशक में सर्वोदय मंडल ने शराब के खिलाफ़ जंग छेड़ी थी, प्रकृति को बचाने के लिए नारे गूँजे थे। अब फिर वही बात – लक्ष्मी आश्रम की बहनें सड़कों पर हैं, पुराने आंदोलनों की राख को फूँक मारकर जगाने की कोशिश में। मगर सवाल यह भी हो सकता है कि क्या हमारे पुरखों का ज़ोर कम पड़ गया, या हम ही नाकारा निकले, जो उनकी आग को ठंडा होने दिया? उनके आंदोलनों का असर फीका पड़ गया, या हमारी गलती कि हम सिर्फ़ सोशल मीडिया पर क्रांति की तस्वीरें सजा रहे हैं? सच तो यह है, न पुरखों की बात पुरानी हुई, न हमारी नयी। बस, हम वही सवाल लिए भटक रहे हैं, जवाब ढूँढने की कोशिश करते हुए। जमीन पर कुछ करना है, या बस स्क्रीन पर उंगलियाँ चलानी हैं? यह सवाल बड़ा है, और शायद हम इसके जवाब से डरते हैं। क्योंकि जवाब माँगता है श्रम, जमीन पर पसीना और जिद, जो हमारे भीतर कहीं दफ़न होती जा रही है, यह शिविर इसे दफन होने देने से रोक रहा है।

लेखक – विवेक कुमार साव, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में शोधार्थी है।

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