स्वराज-रचना और राष्ट्र-निर्माण का गांधी-मार्ग

प्रोफेसर आनंद कुमार

बीते पचहत्तर बरसों में हमने लोकतान्त्रिक संविधान और संसदीय राजनीति का सदुपयोग करके एक कल्याणकारी राज्य की रचना की है. पहले चार दशक राज्य द्वारा निर्देशित नियोजन का रास्ता अपनाया गया. फिर बीते तीस बरस बाजारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के उद्देश्य से खर्च किये गए. फिर भी भारत के गाँवों, कस्बों, नगरों में एक चौथाई आबादी निर्धनता और निरक्षरता के दो पाटों में फंसी हुई है. देश की स्त्रियों, किसानों, दस्तकारों, श्रमजीवियों, दलितों, पसमांदा मुसलमानों और आदिवासियों के बीच स्वराज का अधूरा बने रहना चिंता का विषय है. इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए स्वराज रचना और राष्ट्रनिर्माण के अधूरेपन को रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये दूर करना ही युगधर्म है.

विदेशी गुलामी से स्वतंत्रता हासिल करने के 75 वें वर्ष का उत्सव मनाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है. इस उत्सव वर्ष में यह याद रखना भी हमारी ही जिम्मेदारी है कि आज़ादी के दीवानों के लिए स्वराज का क्या अर्थ था? ब्रिटिश राज के खात्मे के समय स्वराजरचना के लिए जरूरी राष्ट्रनिर्माण की क्या शर्तें थीं? क्या समस्याएं और क्या संभावनाएं थीं?

इस उत्सव प्रसंग में यह याद कराना प्रासंगिक होगा कि गांधीजी ने 15 अगस्त 1947 को हासिल आज़ादी को एक सीमित राजनीतिक सफलता बताया था और सचेत किया था कि स्वराज के आर्थिक, सामाजिक और नैतिक पक्ष को पूरा करने का कठिन काम अभी बाकी है. बिना पूर्ण स्वराज के यह संकल्प साकार नहीं होगा. सत्य और अहिंसा पर आधारित नवनिर्माण नहीं हो सकेगा. इसलिए आर्थिक समानता, सांप्रदायिक एकता, ग्रामस्वराज, दरिद्रता और बेरोजगारी निर्मूलन, स्त्रीपुनरुत्थान, स्वच्छतास्वास्थ्यशिक्षा सुधार, भाषास्वराज, विकेंद्रीकरण और देशदुनिया में शांति के लिए प्रभावशाली कदम उठाना, विदेशी राज से मुक्ति हासिल करने में सफल रहे भारत की नयी जिम्मेदारी है. स्वतंत्रता के 75 बरस पूरे होने की ख़ुशी के देशव्यापी अभियान में उपरोक्त नौ सूत्रीय जिम्मेदारी के बारे में आत्ममूल्यांकन भी उत्सव कार्यों का एक हिस्सा होना चाहिए. इसीलिए आज गांधीजी के सपनों, विशेषकर 1946 में रचनात्मक कार्यक्रम के रूप में प्रकाशित दिशानिर्देशिका, कट्टरपंथियों द्वारा 30 जनवरी, 1948 को सर्वधर्म सद्भाव की प्रार्थना सभा में जाते हुए की गयी गाँधी जी की शर्मनाक हत्या के तीन दिन पहले 27 जनवरी को तैयार और तीन दिन बाद 2 फरवरी को प्रकाशित वसीयतनामा की नयी प्रासंगिकता है. (देखें: रचनात्मक कार्यक्रम गांधीजी (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद; 2015. ‘महात्माजी की अंतिम इच्छा और वसीयतनामा, हरिजन, 2 फरवरी 1948).

इस बारे में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक महानायक, संविधान सभा के अध्यक्ष और देश प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने गाँधी विचार के एक महत्वपूर्ण संकलन के प्राक्कथन में 8 अगस्त 1947 को ही लिखा कि हमने जो स्वतंत्रता प्राप्त की है, उसके फलस्वरूप हमारे ऊपर गंभीर जिम्मेदारियां पड़ी हैंहम चाहें तो भारत का भविष्य बना सकते हैं और चाहें तो बिगाड़ भी सकते हैं. हमारी यह स्वतंत्रता अधिकांश में महात्मा गाँधी के ही महान नेतृत्व का फल है. सत्य और अहिंसा के जिस अनुपम हथियार का उन्होंने उपयोग किया, आज दुनिया को उसकी बड़ी आवश्यकता है; इस हथियार के द्वारा ही वह उन सारी बुराइयों से त्राण पा सकती है, जिनसे आज पीड़ित हैजिस तरह हमारी लड़ाई का हथियार अनुपम था, उसी तरह स्वतंत्रता की प्राप्ति ने हमारे सामने जो संभावनाएं खोल दी हैं, वे भी अनुपम हैं. (देखें : प्राक्कथन, मेरे सपनों का भारत गांधीजी (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद) पृष्ठ iv)

इस प्रसंग में यह निर्विवाद है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के नायकोंनायिकाओं की शानदार श्रृंखला में मोहनदास करमचंद गांधी का अद्वितीय स्थान है. इसी कारण कविवर टैगोर और स्वामी श्रद्धानंद ने उन्हें महात्मा, नेताजी सुभाष ने राष्ट्रपिता और अनगिनत स्वतन्त्रता सेनानियों ने बापू कहा था. गांधीजी ने स्वराज को एक निर्गुण आदर्श से सगुण सच बनाने में 1893 से 1948 के बीच के : लम्बे दशकों के दौरान विचार और कर्म के स्तर पर असाधारण योगदान किया. उनके सपनों, प्रयासों और सिखावन ने देश की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त किया. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि उनके व्यक्तित्व और चिंतन के निर्माण में तीन धर्मों हिन्दू धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म के अनुयायियों के सत्संग का असर था. तीन महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका और यूरोप के ताज़ा इतिहास का संगम था. उन पर ब्रिटेन में बिताए विद्यार्थीजीवन की अवधि और दक्षिण अफ्रीका में जिए संघर्षमय जीवन के प्रयोगों, अनुभवों तथा रुझानों का बहुत प्रभाव था. उन्होंने स्वयं अपने मार्गदर्शकों में जैन साधक श्रीमदराजचंद्र, रूसी चिन्तक लियो ताल्स्तॉय, अमरीकी दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो और ब्रिटिश विचारक जॉन रस्किन को गिनाया है. गांधी द्वारा प्रवर्तित विमर्श को सर्वोदय की संज्ञा दी गयी है. सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए क़त्ल और कानून के सहारे चलने वाली दुनिया के लिए करुणा और अहिंसा की राह बनाना उनकी जीवन यात्रा का सारांश था और सत्याग्रह उनकी मानव समाज को सबसे बड़ी देन है.

गांधीजी की हिन्द स्वराज, ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास, ‘सत्य के प्रयोग, ‘अनासक्ति योग और रचनात्मक कार्यक्रम; ये पांच बहुचर्चित पुस्तकें हैं. इनमें से किस रचना का सर्वोच्च स्थान है? गाँधीविचार के विशेषज्ञों में हिन्द स्वराज और मेरे सत्य के प्रयोग की विशेष महत्ता है, लेकिन गांधीजी का मानना अलग था. गीता सम्बन्धी संस्कृत से गुजराती में अनूदित किताब अनासक्ति योग के बारे में गाँधी जी ने लिखा था कि इस अनुवाद के पीछे अड़तीस वर्ष के आचार के प्रयत्न का दावा है, इसलिए मैं अवश्य चाहता हूँ कि प्रत्येक गुजराती (भारतीय) भाई और बहन, जिन्हें धर्म को आचरण में लाने की इच्छा है, इसे पढ़ें, विचारें और इसमें से शक्ति प्राप्त करें.

गांधी मूलत: आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और गीता को माता का दर्जा देते थे. राजनीति का आध्यात्मीकरण गांधी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान कहा गया है. उन्होंने लिखा है कि गीता आध्यात्मिक ग्रन्थ है. उसके अनुसार आचरण में निष्फलता रोज आती है, पर वह निष्फलता हमारा प्रयत्न रहते हुए है. इस निष्फलता में सफलता की फूटती हुई किरणों की झलक दिखाई देती है. साबरमती आश्रम में सक्रिय यह नन्हासा जनसमुदाय जिस अर्थ को आचार में परिणत करने का प्रयत्न करता है, वह इस अनुवाद में है. इस अनुवाद की कल्पना स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रसरीखे ऐसे लोगों के लिए है, जिनका अक्षर ज्ञान थोड़ा ही है, जिन्हें मूल संस्कृत में गीता समझने का समय नहीं है, इच्छा नहीं है, परन्तु जिन्हें गीता रूपी सहारे की आवश्यकता है. (देखें: मोक गांधी (1930/2014)– अनासक्ति योग : श्रीमद्भगवदगीता, अनुवाद सहित ( सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृष्ठ 5-6)

उन्होंने लेखों, पत्रों, भाषणों, साक्षात्कारों और वक्तव्यों के जरिये लगातार लोकशिक्षण जनमत का निर्माण किया. उनकी संकलित रचनाएं 110 खण्डों में प्रकाशित हुई हैं. विश्व भर में अनेक अहिंसा अध्ययन और प्रशिक्षण केंद्र बनाये गए हैं. दुनिया भर में गांधी की आत्मकथा को एक महत्वपूर्ण पुस्तक का दर्जा दिया गया है. उनके कर्म और विचार पर देशविदेश की विभिन्न भाषाओं में 300 से ज्यादा किताबें छप चुकी हैं और यह विवेचना क्रम अद्यतन बना हुआ है.

गांधी विमर्श के बारे में कुछ मर्यादाएं
सत्य और अहिंसा गांधी जी की जीवन व्यवस्था के दो मूल आधार थे. उनकी ईश्वर में आस्था थी और आत्मसाक्षात्कार को वे व्यक्ति के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते थे. उन्होंने अपने को सनातनी हिन्दू माना और वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे! को अपना जीवन दर्शन बनाया. सर्वधर्म समभाव उनकी आध्यात्मिकता की आधारशिला थी. आत्म साक्षात्कार और मानवता के उत्थान के परस्परनिर्भर लक्ष्यों के लिए उन्होंने स्वराज, एकादश व्रत, रचनात्मक कार्यक्रम, स्वावलंबन, स्वदेशी और सत्याग्रह की एक षड्मुखी जीवनपद्धति का प्रवर्तन किया. ‘आचरण की कसौटी को वे सर्वोच्च महत्व देते थे.

वे राज्यसत्ता और बाजार शक्ति की तुलना में समुदायशक्ति को ज्यादा महत्त्व देते थे. उन्होंने राष्ट्रनिर्माण के लिए लोकशक्ति के आधार पर रचनात्मक कार्यक्रमों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और स्वावलंबी समुदाय निर्माण को स्वराज का पर्यायवाची बनाया. गांधी ने युगान्तरकारी चिंतकों की किताबों का अध्ययन करते हुए भी ठोस कार्यों से मिले अनुभवों को ही अपने सपनों और विचारों का आधार बनाया. उनके चिंतन में देशकालपात्र का महत्व था. कबीर की तरह उनका आधार जनसाधारण के बीच काम करने से मिली यह सीख थीतू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी.

वैसे भी गांधी के सपनों और आदर्शों को समझने के लिए उनकी 1933 में दी इस हिदायत का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि मेरे लेखों का मेहनत से अध्ययन करने वालों और उनमें दिलचस्पी रखने वालों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है. सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातों को सीखा भी है. उमर में भले ही बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बंद हो जाएगा. मुझे एक ही बात की चिंता है, और वह है प्रतिक्षण सत्यनारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता. इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने. (हरिजनबन्धु, 30 अप्रैल, ’33)

तमाम शंकाओं और आलोचनाओं के बावजूद देह छूटने के बाद भी सत्यअहिंसास्वराज स्वदेशी सर्वोदय सत्याग्रह आधारित विमर्श के विकास की निरंतरता की भविष्यवाणी, देशदुनिया में विस्मयकारी रूप से सच साबित हुई है. अमरीका में डॉ मार्टिन लूथर किंग, पकिस्तान में खान अब्दुल गफ्फार खान, तिब्बत में दलाई लामा, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला और यूरोप में ग्रीन मूवमेंट इसके आकर्षक उदाहरण रहे हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी 2007 से गाँधी जन्मतिथि 2 अक्टूबर को पूरी दुनिया में अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का वन्दनीय कार्य शुरू किया है.
भारत में सर्वोदय के गांधीमन्त्र को आचार्य विनोबा भावे ने भूदानग्रामदानग्राम स्वराज अभियान के जरिये साकार किया. उन्होंने 1951 से 13 साल तक अखंड पदयात्रा के जरिये अभूतपूर्व क्रांतियज्ञ संपन्न किया. बाद में आयु की मर्यादा का ध्यान रखते हुए साढ़े चार बरस तक वाहनयात्रा की. लगभग 5000 स्त्रीपुरुषों को राष्ट्रनिर्माण और क्रांति के अहिंसक मार्ग से जोड़ा. जनशक्ति, सज्जन शक्ति, विद्वद्जन शक्ति, महाजन शक्ति और शासन शक्ति, राष्ट्रनिर्माण के लिए इन पंचशक्तियों के परस्पर सहयोग का प्रयोग किया. इसमें जनशक्ति और सज्जनशक्ति को सबसे ज्यादा ताकतवर और शासनशक्ति को सबसे कम ताकत वाला बताया. भूमिसमस्या से ग्रस्त भारत जैसे देश में स्वराज के शुरुआती 25 बरसों में बने तमाम सरकारी कानूनों की तुलना में भूदान आन्दोलन ज्यादा सफल हुआ. लगभग 48 लाख एकड़ भूमि स्वैच्छिक दान द्वारा प्राप्त हुई और उसमें से 18 लाख एकड़ भूमि का देशभर में फैले 4 लाख ६० हजार भूमिहीन परिवारों में वितरण हुआ. जयप्रकाश नारायण के शब्दों में, ‘मुझे तो विचार आता है कि अगर विनोबा ने इस तरह का एक क्रांतिकारी आन्दोलन शुरू किया होता, तो हम लोग अभी भी वहीं के वहीं होते चरखा चलाते, गांधीजी का फोटो घर में रखते, जन्माष्टमीरामनवमी की तरह गांधीजयंती के दिन उपवास करते, किन्तु अहिंसक क्रांति का विचार बिलकुल भूल ही गये होते और सर्वोदय बाजी हार गया होता…’. (देखें: बीता इतिहास या भविष्य का सपना (भूदानग्रामदान आन्दोलन की समीक्षा)जयप्रकाश नारायण कान्ति शाह ( सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी. 2001; पृष्ठ 37)

जब आचार्य विनोबा ने 1973 में 78 बरस की आयु हो जाने पर अपने कार्यक्षेत्र को पवनार आश्रम (वर्धा) में ब्रह्मसाधना तक सीमित कर लिया, तो जयप्रकाश नारायण ने स्वराज के गाँधी विमर्श के नए अध्याय के रूप में सहभागी लोकतंत्र और सम्पूर्ण क्रांति की तरफ देश की नयी पीढ़ी को मोड़ा. इसमें सर्वोदय की 1951 से 1973 तक की उपलब्धियों और समस्याओं से उत्पन्न निष्कर्षों का आधार था और जयप्रकाश तथा उनके सर्वोदयी सहयोगियों की निर्मलता का नैतिक बल था. आज गाँधीविनोबाजयप्रकाश की इस अद्भुत परम्परा का मूल्यांकन समकालीन भारत की समझ के किसी भी प्रयास का एक अनिवार्य तत्व है. (देखें : नॉनवायलेंट रेवोल्यूशन इन इंडिया जेफरी ओस्तर्गार्द (गाँधी पीस फाउंडेशन, नयी दिल्ली, 1985; भूमिका)

गांधीजी की इतिहास दृष्टि और जीवन दर्शन
गाँधी विचार के प्रामाणिक अध्येता समाजवैज्ञानिक प्रो निर्मल कुमार बोस (देखें; स्टडीज़ इन गान्धीज्म (नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद) के अनुसार यह ध्यान में रखना जरूरी है कि गांधीजी की एक निश्चित इतिहास दृष्टि और जीवन दर्शन था. उनकी मान्यता थी कि अब तक के मानव इतिहास में, कुछ अपवादों को छोड़कर, जीवजगत में बुनियादी एकता की तरफ प्रगति हुई है और मानव समुदायों के बीच अवरोध घटे हैं. मानव जीवन का उद्देश्य इस सार्वभौमिक एकता में अपनी जीवन पद्धति से वृद्धि करना है. हमें मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता और एकता की प्रगति के ऐतिहासिक दायित्व में अपना योगदान करना है. परस्पर सहयोग के जरिये जीवन निर्वाह की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकेन्द्रित उत्पादन प्रक्रिया के अंतर्गत शरीरश्रम, जीवन का प्रथम नैतिक नियम है. इससे धरती पर मानव अस्तित्व का निर्वाह होगा और राष्ट्रराज्यों द्वारा निर्मित आधुनिक बाधाओं के बावजूद स्वराज और समता आधारित मानव सभ्यता संभव हो सकेगी.

हिंसा हमारी आत्मरक्षा का सही उपाय नहीं है. इससे हथियारों की होड़ को बढ़ावा मिलता है और बड़े हथियारी समूहों पर निर्भरता बढ़ती है. इसके बजाय अहिंसक तरीके अपनाने से समुदायों की आत्मसुरक्षा की क्षमता में वृद्धि हो सकती है, जिससे एक छोटे समूह में भी आत्मरक्षा की शक्ति जायेगी. क्योंकि अहिंसक परिवेश में एक उचित उद्देश्य के लिए कष्ट उठाने की क्षमता का महत्व होता है. इस प्रकार से रची स्वतंत्रता हर समुदाय को दूसरे समुदायों से बराबरी के आधार पर सहयोग करने में मदद करेगी और स्वराज आधारित लोकतान्त्रिक वैश्विक महासंघ की नींव बनाएगी.

निर्मल कुमार बोस द्वारा ही यह इंगित किया गया है कि गांधी चिंतन में दो विशिष्ट प्रवृत्तियाँ दीखती हैं ) किसी भी प्रश्न के सन्दर्भ में आत्मसमीक्षा, इससे जुड़े आतंरिक सुधार और व्यवस्थागत परिवर्तन का आग्रह और ) समस्या की तात्कालिक तस्वीर और सत्य आधारित समाधान की संभावना की तलाश (मेरे लिए एक कदम ही काफी है). पहली प्रवृत्ति के कारण ही गांधी ने भारत की पराधीनता का कारण देशी राजाओं की परस्पर फूट के बजाय भारतीयों में चांदी के सिक्कों के लोभ और विदेशी शासकों के भय को बताया. इस आधार पर दरिद्रनारायण की सेवा का रचनात्मक कार्य, विदेशी शासन से असहयोग और सत्य, अहिंसा आधारित सत्याग्रही निडरता के समन्वय से स्वराज पाने का अचूक उपाय सिखाया. इस दूसरी प्रवृत्ति के कारण एक ही समस्या के लिए दो भिन्न दशाओं में गाँधी द्वारा दो अलगअलग समाधान अपनाना आलोचना का कारण रहा. जबकि गांधी इस फर्क के लिए सत्य के निरंतर विस्तृत होते रूप को आधार बताते थे.

गाँधी की कार्यपद्धति की यह भी विशेषता थी कि अपने किसी विचार और सुझाव को व्यवहार में लाने के लिए नयी संस्थाएं बनाने के बजाय, वे उपलब्ध असरदार संगठनों को ही माध्यम बनाते थे. यदि नयी संस्थाएं बनाना जरूरी भी हुआ, तो उसको किसी पूर्वस्थापित संगठन के अंतर्गत सहमति बनाकर निर्मित करते थे, जिससे नयी संस्था को एक अनुकूल परिवेश में विकसित किया जाए.

यह भी सच था कि किसी भी प्रसंग में गांधीजी काफी सोचसमझकर अपना मंतव्य प्रकट करते थे और अपने दृष्टिकोण के प्रति प्रबल आग्रह रखते थे. उनके विचारों में परिवर्तन कठिन था, लेकिन वे अपने से असहमत व्यक्तियों से बहुत दूर नहीं जाते थे. मतभेद को मनभेद और सम्बन्धविच्छेद की दिशा में नहीं बढ़ने देते थे.

आलोचनाओं और भ्रांतियों के बावजूद अपने विरोधियों से संवाद करना उनकी मूल प्रवृत्तियों में शामिल था. इसके उल्लेखनीय उदाहरणों में असहयोग आन्दोलन का वापस लेना और चितरंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू सरीखे वरिष्ठ आलोचकों द्वारा स्वराज पार्टी का गठन करना (प्रोचेंजर बनाम नोचेंजर विवाद), कांग्रेस के युवा पक्ष द्वारा नेहरू सुभाष की अगुवाई में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता को कांग्रेस का लक्ष्य बनाने का प्रस्ताव पारित कराना, 1932 में दलितों के सशक्तिकरण के लिए ब्रिटिश प्रस्ताव के मुकाबले एक वैकल्पिक योजना के लिए आमरण अनशन और पूना समझौता करना, ‘राष्ट्रनिर्माण के रचनात्मक कार्यों, विशेषकर अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए अपने को समर्पित करते हुए बुद्धिजीवियों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा देना, 1939 और 1943 के बीच गाँधीजी से गंभीर मतभेद के बावजूद 1944 में सुभाष बोस द्वारा देश के नाम सन्देश में गांधीजी को राष्ट्रपिता के रूप में आदर देते हुए आशीर्वाद माँगना,‘भारत छोड़ो आन्दोलन के बारे में कांग्रेस नेतृत्व की असहमति को समर्थन में बदलना, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ स्पष्ट सैद्धांतिक मतभेद से शुरू संवाद को अंग्रेजों, भारत छोडो! आन्दोलन के दौरान उन्मुक्त सहयोग में बदलना, 1944 में मुस्लिम अलगाववाद के समाधान के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से कई बार वार्ता के बाद की असफलता और आलोचना को स्वीकार करना और भारतविभाजन के विरुद्ध नेहरूपटेलआज़ाद की दृष्टि से मतभेद के बावजूद कांग्रेस के प्रस्ताव के साथ सहयोग करना, इसके कुछ बहुचर्चित उदाहरण हैं.

गाँधीजी की राजनीति की प्राथमिक पाठशाला
गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में 1919 से सक्रिय हिस्सेदारी शुरू की और पांच बरस बाद ही ऐतिहासिक असहयोग आन्दोलन की असफलता के बावजूद, 1924 में उसके अध्यक्ष बने. कांग्रेस की अध्यक्षता के दौरान उन्होंने इसका कायाकल्प कर दिया. इसके बाद 1947 में भारत के स्वाधीन होने तक कांग्रेस के साथ उनका सम्बन्ध कई उतारचढावों से गुजरा, लेकिन उन्होंने इसे अपना मुख्य माध्यम बनाए रखा.

उल्लेखनीय है कि 1915 में दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापसी के बाद के अपने पहले राजनीतिक प्रयास में गांधीजी पूरी तरह असफल थे, क्योंकि अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा स्थापित सर्वेन्ट्स ऑफ़ पीपुल्स सोसायटी में प्रवेश की उनकी दरख्वास्त अस्वीकार कर दी गयी थी. उन्हें 1917 से एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक द्वारा आरम्भ होमरूल लीग की बम्बई प्रेसिडेंसी इकाई में जरूर जोड़ा गया, लेकिन वह संतोषजनक अनुभव नहीं था. उन्हें सदस्यता के साथ ही जिन्ना की जगह अध्यक्ष पद भी सौंपा गया था. गांधीजी ने ऑल इण्डिया होम रूल लीग का नाम बदल कर स्वराज्य सभा करा दिया और उसकी कार्यपद्धति में कानूनी तरीकों को ही अपनाने के बजाय प्रभावशाली शांतिपूर्ण तरीकों से गैरकानूनी उपाय अपनाने का प्रावधान करा दिया. उन्होंने होमरूल लीग के विधान में सुधार के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विधान में भी ऐसा ही सुधार 1920 में करवाया.

तबकी राजनीति कैसी थी? राष्ट्रीयता, मुस्लिम सम्प्रदाय के मुद्दे, जाति और वर्ग, तथा उग्र राष्ट्रवाद, गाँधी के भारतीय सार्वजनिक जीवन में प्रवेश काल के मुख्य सरोकार थे. तबके भारतीय सार्वजनिक जीवन में . हिन्दूमुसलमान, . शिक्षितअशिक्षित, और . सुधारवादी तथा राष्ट्रवादी की खेमेबंदियां और दरारें थीं. स्वराज की कल्पना को लेकर नरमपंथी और गरमपंथी गुटबंदी थी. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश राज ने स्वदेशी की आवाज़ को पूरी तरह से दबा दिया था. गाँधी की अपनी किताब हिन्द स्वराज के छपने और बेचने पर प्रतिबन्ध था. ऐसे बिखराव के माहौल में उन्होंने खादी, नशाबंदी, अस्पृश्यता निवारण और देशी भाषाओं के लिए रचनात्मक सेवा कार्य और जरूरत पड़ने पर राज्यसत्ता की सविनय अवज्ञा के जरिये नयी एकता का निर्माण करके जनसाधारण की हिस्सेदारी के लिए असहयोग और सिविल नाफ़रमानी की राह बनायी. इस सन्दर्भ में 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय के निमंत्रण पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में दिए गए उनके भाषण को स्वराज का रणघोष भी माना जाता है.

वस्तुत: उनकी सत्याग्रही राजनीति को 1917 से 1922 के बीच के सात आन्दोलनों; चंपारण का किसान आन्दोलन, खेड़ा का किसान आन्दोलन, अहमदाबाद श्रमिक आन्दोलन, रौलट सत्याग्रह, जालियांवाला बाग़ हत्याकांड, खिलाफत आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन की सफलताओं और असफलताओं ने आकार दिया था. इन आन्दोलनों से मिले पाठ ने गांधी के विचारों में हिन्द स्वराज से आगे की सूत्रबद्धता पैदा की और सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, सर्वोदय, सर्वधर्म समभाव तथा सत्याग्रह आधारित स्वराजरचना के नायक और प्रवक्ता के रूप में उनकी देशव्यापी पहचान बनी.

स्वराज की गांधीपरिभाषा
गांधीजी के लिए स्वराज के विमर्श को निरंतर विस्तार देना सत्यसाधना का अनिवार्य अंग था. इसकी प्रामाणिक शुरुआत हिन्द स्वराज के प्रकाशन से हुई और इसका प्रयास रचनात्मक कार्यक्रम के निरूपण और अंतिम वसीयतनामा के लिखने तक जारी रहा, लेकिन सरलीकरण का ख़तरा उठाते हुए यह कहा जा सकता है कि गांधीजी ने इस प्रश्न को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का लक्ष्य स्वीकारने के बाद जादा महत्त्व दिया.

इसमें इस बात का ध्यान रखा गया कि स्वराज के क्या मायने नहीं हैं, इसको भी लोकमानस अच्छी तरह ग्रहण कर ले. दूसरे शब्दों में गांधीजी ने दो टूक शब्दों में कहा कि ) स्वराज स्वच्छंदता या निरंकुश आज़ादी नहीं है. इसमें हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध बनाने के लिए नीति पालन की केन्द्रीयता होगी. ) स्वराज अमीरों या शिक्षितों का सत्ता पर एकाधिकार नहीं हो सकता. वह सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा. इस सब की गिनती में किसान और करोड़ों मेहनतकश मजदूरों से लेकर भूख से पीड़ित और विकलांग स्त्रीपुरुष सभी आते हैं. ) कुछ लोगों का अनुमान है कि स्वराज बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं का राज होगा. मैं ऐसा मानने से इनकार करूंगा. मेरे लिए हिन्द स्वराज का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य होगा. ) स्वराज्य का अर्थ है, सरकारी नियंत्रण और निर्भरता से मुक्ति. फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का. और ) सच्चा स्वराज थोड़े से लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता है, तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की शक्ति से होता है.

गांधीजी ने स्वराज्य के सकारात्मक पक्ष को रखते हुए 1937 में लिखा कि, ‘स्वराज्य की मेरी कल्पना के विषय में किसी को कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए. उसका अर्थ विदेशी नियंत्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता है. उसके दो दूसरे उद्देश्य भी हैं; एक छोर पर है नैतिक और सामाजिक उद्देश्य तथा दूसरे छोर पर दूसरा उद्देश्य है धर्म. यहाँ धर्म शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है. उसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि सबका समवेश होता है, लेकिन वह इन सबसे ऊंचा हैइसे हम स्वराज का समचतुर्भुज कह सकते हैं; यदि उसका एक भी कोण विषम हुआ, तो उसका रूप विकृत हो जायेगा. (हरिजन, 2 जनवरी 37)

देशदशा की गांधीसमीक्षा
भारत के स्वराज के लिए आजीवन प्रतिबद्ध गांधीजी को अपने समाज की कई खूबियों को लेकर अपार गर्व था. उनके अनुसार, ‘मैं भारत की भक्ति करता हूँ, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब उसी का दिया हुआ है. मेरा पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक सन्देश है. उसे यूरोप का अन्धानुकरण नहीं करना है.’ (देखें: यंग इण्डिया, 11 अगस्त 20). 1921 के असहयोग आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर असहमति प्रकट करने पर उन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को लिखा था कि मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दी जाएँ. मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देशविदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे. पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर उखड जाएँ और मैं औंधे मुंह गिर पडूँ. मैं दूसरों के घरों में अनामंत्रित व्यक्ति, भिखारी या गुलाम की हैसियत से रहने के लिए तैयार नहीं हूँ. (यंग इण्डिया, 1 जून 21)

लेकिन समाज और संस्कृति के कुछ महादोषों को लेकर बहुत ग्लानि थी. इस सूची में गुलामी, गरीबों की लाचारी, ऊंचनीच का वर्गभेद, साम्प्रदायिक वैमनस्य, अस्पृश्यता, स्त्रियों की अधिकार हीनता, शराब और अन्य नशीली चीजों का अभिशाप और अंतर्राष्ट्रीय शोषण की प्रमुखता थी.
वे स्वराज को इन महादोषों के उपचार का पर्यायवाची समझते थे. इसके लिए वे व्यक्तिगत आचरण और सामुदायिक जीवन को परस्पर सम्बद्ध दो रणभूमियां मानते थे. उन्होंने 1931 में लिखा कि मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूंगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलंबन से मुक्त कर दे और उसे, आवश्यकता हो तो, पाप करने तक का अधिकार दे. मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्त्व है. मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें ऊंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल होगा. ऐसे भारत में अस्पृश्यता, शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता. उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे, जो पुरुषों को होंगे. चूंकि शेष सारी दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध शांति का होगा, यानी तो हम किसी का शोषण करेंगे और किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे, इसलिए हमारी सेना छोटी से छोटी होगी. ऐसे सभी हितों का, जिनका करोड़ों मूक लोगों के हितों से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जाएगा, चाहे वे हित देशी हों या विदेशी. अपने लिए तो मैं यह भी कह सकता हूँ कि मैं देशी और विदेशी के फर्क से नफरत करता हूँ. यह है मेरे सपनों का भारत. इससे भिन्न किसी चीज से मुझे संतोष नहीं होगा. (यंग इण्डिया, 10 सितम्बर 31)

समाज नवनिर्माण की गांधीदृष्टि
गाँधी की समाज दृष्टि के दो पहलू स्पष्ट रहे हैंहमारी वर्तमान दशा, और समाजसुधार के उपाय. उदाहरण के लिए, उनकी मान्यता थी कि हमारी संस्कृति में श्रम और बुद्धि के बीच एक अलगाव है और इस कारण भारत के समाज अपने गाँवों के प्रति गुनाह की हद तक लापरवाह हो गए हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि देश में जगहजगह सुहावने और मनभावने छोटेछोटे गाँवों के बदले हमें घूरे जैसे गंदे गाँव देखने को मिलते हैं. गाँव के बाहर और आसपास इतनी गंदगी होती है और वहां इतनी बदबू आती है कि अक्सर गाँव में जाने वाले को आँख मूंदकर और नाक दबाकर ही जाना पड़ता है. हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफाई को तो जरूरी गुण माना और उसका विकास किया. यों रिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा भर लेते हैं, मगर जिस नदी, तालाब या कुएं के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं, उनके पानी को बिगाड़ने या गंदा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती है. इस दुर्गुण का ही नतीजा है कि हमारे गाँवों और हमारी नदियों के पवित्र तटों की लज्जाजनक दुर्दशा तथा गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियां हमें झेलनी पड़ती हैं.

शहरों की गन्दगी का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा कि भारत के हरेक शहर के मध्यवर्ती बागों में सफाई की जो दयनीय स्थिति दिखाई देती है, उसकी जिम्मेदारी हम म्युनिसिपैलिटी पर नहीं डाल सकते. जहांतहां शौच के लिए बूथ जाना, नाक साफ़ करना या सड़क पर थूकना ईश्वर और मानवजाति के खिलाफ अपराध है और दूसरों के प्रति लिहाज में हमारी कमजोरी प्रकट करता है. पश्चिम के लोगों ने सामुदायिक आरोग्य और सफाई का एक शास्त्र ही तैयार कर लिया है, जिससे हमें बहुत कुछ सीखना है.

गांधीजी ने मंगल प्रभात में दोटूक शब्दों में लिखा कि जिस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है, वहां कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बरसों से लगता रहा है. हम सब भंगी हैं, यह भावना हमारे मन में बचपन से जम जानी चाहिए. इसका सबसे आसान तरीका यह है कि हम सामुदायिक श्रमदान का आरम्भ पाखाना सफाई से करें. जो समझबूझकर ज्ञानपूर्वक यह करेगा, वह उसी क्षण से धर्म को निराले ढंग से और सही तरीके से समझने लगेगा.

गांधीजी की दृष्टि में भारत के सात लाख गाँवों को त्रिविध बीमारी ने जकड़ रखा है सार्वजनिक स्वच्छता की कमी, पर्याप्त और पोषक आहार की कमी और ग्रामवासियों की जड़ता. उन्होंने रेखांकित किया कि, ‘मेरी राय में जिस जगह शरीरसफाई, घरसफाई और ग्रामसफाई हो तथा युक्ताहार और योय व्यायाम हो, वहां कम से कम बीमारी होती है और अगर चित्तशुद्धि भी हो, तो कहा जा सकता है कि बीमारी असंभव हो जाती है. रामनाम के बिना चित्तशुद्धि नहीं हो सकती. अगर देहात वाले इतनी बात समझ जाएँ, तो वैद्य, हकीम या डॉक्टर की जरूरत रह जाए. ( हरिजन सेवक, 2 जून 46)

गाँधी की राष्ट्रनिर्माण योजना में इसका क्या निदान था? गांधीजी के अनुसार, ‘आदर्श भारतीय गाँव इस तरह से बसाया और बनाया जाना चाहिए, इससे वह संपूर्णतया निरोग हो सके. उसके झोपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और वायु जा सके. ये झोपड़े ऐसी चीजों के बने हों, जो पांच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हो सकें. हर मकान के आसपास या आगेपीछे इतना बाद आँगन हो, जिसमें गृहस्थ अपने लिए सागभाजी लगा सकें और पशुओं को रख सकें. गाँव की गलियों और रास्तों पर जहां तक हो सके, धूल हो. अपनी जरूरत के अनुसार गाँव में कुएं हों, जिनसे गाँव के सब लोग पानी भर सकें. सबके लिए प्रार्थना घर या मंदिर हों, सार्वजनिक सभा वगैरह के लिए अलग स्थान हो. गाँव की अपनी गोचर भूमि हो. सहकारी ढंग की एक गोशाला हो. ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं हों, जिनमें उद्योग की शिक्षा सर्वप्रधान वस्तु हो और गाँव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एक ग्रामपंचायत भी हो. अपनी जरूरतों के लिए अनाज, सागभाजी, फल वगैरह खुद गाँव में ही पैदा हों. एक आदर्श गाँव की मेरी अपनी यह कल्पना है. (देखें: हरिजन सेवक, 16 जनवरी 37)

कुछ समय बाद गांधीजी ने ग्रामस्वराज्य की कल्पना को भी स्पष्ट शब्दावली दी. 2 अगस्त 42, यानी अंग्रेजों! भारत छोडो आन्दोलन. के एक सप्ताह पहले उन्होंने लिखा था कि ग्राम स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरुरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए, जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा, वह परस्पर सहयोग से काम लेगा. इस तरह हर एक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़ों के लिए कपास खुद पैदा कर ले. उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिए, जिसमें ढोर चार सकें और गाँव के लोगों के लिए मनबहलाव के साधन और खेलकूद के मैदान वगैरह का बंदोबस्त हो सके. इसके बाद भी ज़मीन बची तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोयेगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गांजा, तम्बाकू, अफीम वगैरह की खेती से बचेगा.

हर एक गाँव में अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभाभवन रहेगा. पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा, वाटर वर्क्स होंगे, जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा. कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है. बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी. जहां तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किये जायेंगे. जातपांत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्रामसमाज में बिलकुल नहीं रहेंगे.

गाँधी के सपनों के भारत का आर्थिक पक्ष
इस बात की सर्वत्र जानकारी है कि गांधीजी उद्योगवाद को अभिशाप मानते थे तथा वर्गयुद्ध के विरुद्ध थे. उन्होंने सम्पत्तिवान लोगों से संरक्षकता (ट्रस्टीशिप) की राह अपनाने की अपेक्षा की थी, लेकिन इसकी चर्चा कम होती है कि बेकारी के सवाल पर गांधीजी की मान्यता यह भी थी कि जब तक एक भी अशक्त आदमी ऐसा हो, जिसे काम मिलता हो या भोजन मिलता हो, तब तक हमें आराम करने या भरपेट भोजन करने में शर्म महसूस होनी चाहिए. (देखें: यंग इण्डिया, 6 अक्टूबर 1921) इसलिए शरीर श्रम का सम्मान, किसान को उचित दाम, ग्रामोद्योग को प्रोत्साहन, यंत्रों का विवेकसम्मत उपयोग, स्वदेशी आर्थिकी और समग्र ग्रामसेवा, गाँधी की बेकारीनिवारण योजना के आधार स्तम्भ थे.

उन्होंने भारतीय धनपतियों को स्पष्ट शब्दों में अपनी संपत्ति को भोगविलास का साधन बनाने के बजाय जापानी धनवानों का अनुसरण करने की सलाह दी थी: यदि पूंजीपति वर्ग काल का संकेत समझकर संपत्ति के बारे में अपने इस विचार को बदल डाले कि उस पर उनका ईश्वर प्रदत्त अधिकार है, तो जो सात लाख घूरे आज गाँव कहलाते हैं, उन्हें आननफानन में शांति और सुख के धाम बनाया जा सकता है. मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि पूंजीपति जापान के उमरावों का अनुसरण करें, तो वे सचमुच कुछ खोएंगे नहीं और सबकुछ पाएंगे. केवल दो मार्ग हैं, जिनमें से हमें अपना चुनाव कर लेना है. एक तो यह कि पूंजीपति अपना अतिरिक्त संग्रह स्वेच्छा से छोड़ दें और उसके परिणामस्वरूप सबको वास्तविक सुख प्राप्त हो जाये. दूसरा यह कि अगर पूंजीपति समय रहते चेते, तो करोड़ों जागृत किन्तु अज्ञानी और भूखे लोग देश में ऐसी गड़बड़ मचा दें, जिसे एक बलशाली हुकूमत की फौजी ताकत भी नहीं रोक सकती. मैंने यह आशा रखी है कि भारत ऐसी विपत्ति से बचने में सफल रहेगा. (देखें : यंग इण्डिया, 5 दिसम्बर 1929)

गांधीजी का मानना था कि गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है. भूख से पीड़ित उन लाखोंकरोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव पड़ ही नहीं सकता. कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू ही नहीं सकती. लेकिन उनके पास आप रोटी लेकर जाइए, तो वे आपको भगवान की तरह पूजेंगे. रोटी के सिवा उन्हें और कुछ सूझ ही नहीं सकता. इसलिए आर्थिक समानता अहिंसापूर्ण स्वराज्य की मुख्य चाभी है. इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर मुट्ठी भर पैसे वाले लोगों के हाथ में इकट्ठा हो गयी राष्ट्र की संपत्ति को कम करना, दूसरी ओर जो करोड़ों लोग आधा पेट खाते और नंगे रहते हैं, उनकी संपत्ति में वृद्धि करना. क्यों? क्योंकि जब तक मुट्ठी भर धनवान और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच यह बेइन्तहां अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज्यव्यवस्था कायम नहीं हो सकती. यदि भारत को अपना विकास अहिंसा की दिशा में करना है, तो उसे बहुत सी चीजों का विकेंद्रीकरण करना होगा. अन्यायपूर्ण असमानताओं की इस हालत में, जहां चंद लोग मालामाल हैं और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, रामराज्य कैसे हो सकता है? मैं ऐसी स्थिति लाना चाहता हूँ, जिसमें सबका सामाजिक दर्जा समान माना जाये. मजदूरी करने वाले वर्गों को सैकड़ों वर्षों से समाज से अलग रखा गया है और उन्हें नीचा दर्जा दिया गया है. उन्हें शूद्र कहा गया है और इस शब्द का यह अर्थ किया गया है कि वे दूसरे वर्गों से नीचे हैं. मैं बुनकर, किसान और शिक्षक के बच्चों में कोई भेद नहीं होने दे सकता. गांधीजी की यह भविष्यवाणी थी कि अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को खुद राजीख़ुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तैयार नहीं होंगे, तो यह तय समझिये कि हमारे देश में हिंसक और खूंख्वार क्रांति हुए बिना रहेगी. (देखें: करेक्टर एंड नेशन बिल्डिंग एमके गांधी (1959) ( संपादक वालजी गोविन्दजी देसाई) (नवजीवन पब्लिशिंग हॉउस, अहमदाबाद; पृष्ठ 29-30)

उपसंहार
स्वतंत्र भारत का नवनिर्माण एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी रही है और बीते पचहत्तर बरसों में हमने लोकतान्त्रिक संविधान और संसदीय राजनीति का सदुपयोग करके एक कल्याणकारी राज्य की रचना की है. पहले चार दशक राज्य द्वारा निर्देशित नियोजन का रास्ता अपनाया गया. फिर बीते तीस बरस बाजारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के उद्देश्य से खर्च किये गए. फिर भी भारत के गाँवों, कस्बों, नगरों में एक चौथाई आबादी निर्धनता और निरक्षरता के दो पाटों में फंसी हुई है. देश की स्त्रियों, किसानों, दस्तकारों, श्रमजीवियों, दलितों, पसमांदा मुसलमानों और आदिवासियों के बीच स्वराज का अधूरा बने रहना चिंता का विषय है. इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए स्वराज रचना और राष्ट्रनिर्माण के अधूरेपन को रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये दूर करना ही युगधर्म है. इसके लिए कृषिग्रामोद्योगलघु और मंझोले उद्योगों की परस्परपूरकता और गाँवशहर की परस्परनिर्भरता के ओझल हो गए सिद्धांत की ओर ध्यान देना चाहिए. इस लक्ष्य को पाने में स्वराज और राष्ट्र निर्माण के गांधी मार्ग की समझ का 21 वीं शताब्दी के भारतीय समाज की जरूरत और क्षमता के मुताबिक सार्थक संयोजन करना होगा.

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