भूदान आंदोलन के अविस्मरणीय पल

गौतम जी बजाज

तेलंगाना के नलगोंडा जिले में एक जगह है – पोचमपल्ली। यहाँ 18 अप्रैल, 1951 को एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना घटी, जिसने इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। उस दिन कुछ ऐसा हुआ, जो पहले कभी नहीं हुआ था। दुनिया भर में लोग स्कूलों, कॉलेजों, मंदिरों और धर्मशालाओं के लिए दान देते आए थे, लेकिन गरीबों के लिए जमीन दान में लेकर उसे बाँटना, यह एक अनोखा विचार था। उस दिन पोचमपल्ली में हरिजन बस्ती के हालात देखकर किसी का भी दिल पसीज जाए। वहाँ रहने वालों के पास न खाने को था, न जीवन-यापन के लिए कुछ व्यवस्थाएं ही। साल में छह महीने मजदूरी मिलती, तो थोड़ा चावल खरीदकर गुजारा करते। बाकी छह महीनें, पेड़ की पत्तियाँ उबालकर, नमक डालकर खाते। विनोबा जी ने वहाँ सभा की, और जमीदारों को गुजारिश करते हुए कहा कि क्या कोई इन गरीबों के लिए अपनी जमीन दान देगा, कोई आगे आएगा? तो वहीं का एक जमीदार, जिसका नाम था – रामचंद्र रेड्डी। उन्होंने बिना हिचक, अपनी सौ एकड़ जमीन दान देने की इच्छा जाहिर की। बस! उस दिन से भूदान आंदोलन की नींव पड़ गई। अगले दिन विनोबा जी पैदल ही अगले गाँव गए। वहाँ भी जमीन मिली। फिर एक गाँव से दूसरे गाँव, कदम बढ़ते गए। पोचमपल्ली से वर्धा तक की उस लंबी यात्रा में 12,500 एकड़ जमीन दान में मिल चुकी थी। बारिश के दिन थे, तो विनोबा जी कुछ दिन आश्रम में रुके। तभी नेहरू जी का बुलावा आया – प्लानिंग कमीशन की चर्चा के लिए। लेकिन विनोबा जी कांचन मुक्ति के सिद्धांत पर थे, यानी पैसे को हाथ नहीं लगाना, तो उन्होंने वर्धा से दिल्ली तक का सफर भी पैदल ही तय किया। यहीं से मेरे जुड़ने की कहानी शुरू होती है। मैं तब 13 साल का था। स्कूल छोड़कर विनोबा जी के पास पहुँच गया। उन्होंने कहा, चलो, इस पदयात्रा में शामिल हो जाओ। रास्ते में बातें होंगी, पढ़ाई भी हो जाएगी। मैं निकला तो 13 का था, लौटा तो 26 का हो चुका था। लगभग पूरे हिंदुस्तान को पैदल नाप दिया। जो देखा, वो सतयुग की कहानियाँ नहीं, अपनी आँखों के सामने की सच्चाई थी। एक किस्सा सुनाता हूँ। साल था 1952, जनवरी-फरवरी का समय। उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में हमारी पदयात्रा चल रही थी। विनोबा जी के भाषण सुनने आस-पास के गाँवों से हजारों लोग जुटते। न प्रचार का कोई साधन था, न ही आज के तरह की व्यवस्थाएं थी। बस, एक-दूसरे को बताकर लोग आ जाते। विनोबा जी बोलें, हमारे देश में गरीबी है, बेकारी है। भूमिहीन मजदूरों की भरमार है। अगर आप अपनी जमीन का छठा हिस्सा दान दे दें, तो इन गरीबों के लिए कुछ तो इंतजाम हो सकता है। उस जमाने में न नौकरियाँ थीं, न पक्की सड़कें, न आज जैसी सुविधाएँ। सभा के बाद, मैं दान-पत्र भरवाने बैठता था। नाम, पता, जमीन का ब्यौरा – सब नोट करता। एक दिन एक वकील साहब आए। बोले, मेरे पास तीस एकड़ जमीन है। विनोबा जी ने छठा हिस्सा माँगा है, तो मैं पांच एकड़ दान देता हूँ। मैंने उनका दान-पत्र लिख लिया। रात के आठ बज रहे थे। सुबह चार बजे पदयात्रा शुरू होती, तो सोने की तैयारी कर रहा था। तभी वही वकील साहब, फिर लौट आए। मैंने पूछा, क्या हुआ? वे बोलें, घर में आज खाना नहीं बना। पत्नी ने मना कर दिया। मैंने कहा, कोई बात नहीं। दान-पत्र ले जाइए, या फिर मैं ही इसे नष्ट कर दूंगा। आप चिंता न करें, जबरदस्ती की बात नहीं है। फिर उन्होंने जो बताया, उसे सुनकर आप आज भी यकीन नहीं करेंगे। वह बोले – जब मैं सभा से घर गया और पत्नी को बताया कि तीस एकड़ में से पांच एकड़ दान दे आया, तो वह चुप हो गई। थोड़ी देर बाद बोली, आपने ठीक नहीं किया। आज खाना नहीं बनेगा। मैंने सोचा शायद वह नाराज है। पर उसने कहा, तीस एकड़ आपके नाम है, और तीस एकड़ मेरे नाम भी है। आप मेरे हिस्से से भी पांच एकड़ दान देकर आइए, तब खाना बनाऊँगी। रात को ही वे वापस आए और पत्नी के नाम से भी पांच एकड़ जमीन दान में दे गए। तब जाकर घर गए। हम अक्सर सोचते हैं कि हमारी बहनें, हमारी पत्नियाँ ऐसे नेक कामों में रोड़ा डालती हैं। लेकिन यह धारणा कितनी गलत है, यह उस वकील साहब की पत्नी ने साबित किया।
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि मांगने वालों की संख्या दस होती थी, मगर जमीन सिर्फ पांच लोगों के लिए ही उपलब्ध होती। ऐसे में हम उन दस लोगों से पूछते, “आप में से कोई अपना नाम वापस लेना चाहे तो ले सकता है।” इसी संदर्भ में एक बार एक भाई ने बड़े दिल से कहा, “ये मेरा पड़ोसी है, इसके तीन बच्चे हैं और इसकी हालत मुझसे भी ज्यादा नाजुक है। मैं तो अकेला हूँ, मजबूत हूँ, कहीं भी जाकर मेहनत कर लूँगा। इसे जमीन दे दीजिए, मुझे नहीं चाहिए।”

कई बार हमारी अपील पर दो-चार दानदाता आगे आ जाते, और फिर हम सबके बीच जमीन बांट देते। कभी ऐसा भी होता कि जमीन इतनी नहीं होती कि सभी को मिल सके। तब हम पर्चियाँ बनाते- कागज की छोटी-छोटी पर्चियाँ बनाकर एक नन्हे बच्चे के मासूम हाथों से निकलवाते। जिसका नाम आ जाए, उसे जमीन मिल जाए। ऐसे अनगिनत दिल छू लेने वाले किस्से हैं। इसी तरह, लगभग एक लाख गाँवों से करीब 18 लाख लोगों ने बड़े मन से जमीन दान की, और विनोबा जी ने उसे लाखों परिवारों में बांट दिया। आज के दौर में तो एक हाथ भर जमीन के लिए लड़ाई-झगड़े हो जाते हैं, लेकिन तब का वो समय, वो त्याग, वो भाईचारा, सचमुच अनमोल था।

(प्रस्तुत – Global Gandhi (Vivek Kumar Shaw)
(यह गौतमजी बजाज के साथ विवेक कुमार साव की बातचीत का एक अंश है। दिसम्बर, 2024 को पवनार आश्रम में यह साक्षात्कार लिया गया।)

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