महात्मा गांधी ने कहा था —
“मुझे अपनी मातृभाषा पर गर्व है। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, वह हमारी आत्मा की अभिव्यक्ति है।”
आज के वैश्विक युग में जहाँ अंग्रेज़ी का प्रभाव व्यापक होता जा रहा है, वहीं हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अपनी मातृभाषा या देश की भाषाओं के प्रति सम्मान और जागरूकता भी उतनी ही ज़रूरी है। गांधीजी इस सिद्धांत को अपने जीवन में आत्मसात कर चुके थे।
गांधीजी और भारतीय भाषाएँ
गांधीजी ने हमेशा भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी। वे मानते थे कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए ताकि बालक सहज रूप से ज्ञान अर्जित कर सके। उनका मानना था कि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी न तो विषय को पूरी तरह समझ पाते हैं और न ही अपने मन की बात प्रभावी ढंग से कह पाते हैं।
उन्होंने कहा था:
“हमें अपनी शिक्षा मातृभाषा में ही लेनी चाहिए। विदेशी भाषा से केवल दिमाग पर बोझ बढ़ता है।”
भाषा और आत्मसम्मान
गांधीजी ने भाषा को राष्ट्र के आत्मसम्मान से जोड़ा। वे मानते थे कि यदि कोई राष्ट्र अपनी भाषाओं का सम्मान नहीं करता, तो वह आत्मनिर्भर नहीं बन सकता। भाषा गुलामी से मुक्ति का मार्ग भी हो सकती है, और आत्मगौरव का प्रतीक भी।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह
गांधीजी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए लगातार आग्रह किया। उन्होंने कहा था कि हिंदी और हिंदुस्तानी भाषा ही भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत को जोड़ने का कार्य कर सकती है।
उनका स्पष्ट मत था कि हिंदी को राजभाषा बनाया जाए, लेकिन साथ ही सभी क्षेत्रीय भाषाओं को भी पूरा सम्मान मिले।
आज की ज़रूरत: भाषाई जागरूकता
आज जब डिजिटल युग में हम ग्लोबल भाषाओं की ओर बढ़ रहे हैं, तब गांधीजी की सीख और भी प्रासंगिक हो जाती है।
हमें ज़रूरत है:
- अपनी मातृभाषा को गर्व से बोलने की
- क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान करने की
- शिक्षा और संवाद में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की
- और युवाओं को भाषाई विविधता का महत्व समझाने की
✨ निष्कर्ष
महात्मा गांधी की दृष्टि में भाषा कोई मात्र संवाद का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का आधार है।
इस “भाषा जागरूकता माह” में आइए, हम गांधीजी के विचारों को आत्मसात करें और अपनी भाषाओं को अपनाकर आत्मसम्मान, एकता और स्वराज की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाएँ।