आचार्य विनोबा के अनुसार,
“कर्नाटक में संयुक्त कर्नाटक के प्रथम वर्ष दिन पर हमने नये मंत्र का उद्घोष किया – जय जगत। (1 नवंबर, 1957)” (अहिंसा की तलाश, पृ.सं-154)
‘जय-जगत्’ का अर्थ है संपूर्ण विश्व की विजय, जिसमें पूरी दुनिया के लिए शांति, प्रेम और सौहार्द का भाव समाहित है। यह ऐसा भाव है जिसमें न कोई डर है, जो न कोई दमन की जंजीरों में जकड़ा है, और न ही कोई शत्रुता है, बल्कि यह पूरे विश्व को एकता के सूत्र में बांधता है।
यह निडरता का प्रतीक है, जो न हिंसा की आग से प्रज्वलित होता है, न अहंकार की झूठी ऊंचाइयों से उत्पन्न होता है, बल्कि प्रेम व करुणा की गहराइयों से प्रकट होता है।
यह ‘जय जगत्’, हृदय जोड़ने वाले बाबा (विनोबा) के विचारों का मूल मंत्र है; जो व्यक्तिगत, भाषागत, जातिगत या राष्ट्रीय स्वार्थ से ऊपर उठकर संपूर्ण विश्व के कल्याण की बात करता है।
उनके अनुसार, सच्ची प्रगति तभी संभव है, जब हम अपने संकीर्ण दृष्टिकोण से मुक्त होकर समस्त मानवता के हित में कार्य करें। उनके विचारों में त्याग महत्वपूर्ण स्थान रखता है, लेकिन वे यह मानते हैं कि केवल व्यक्तिगत त्याग पर्याप्त नहीं है।
वह कहते भी हैं कि:
“व्यक्ति का त्याग पर्याप्त नहीं, ऐसा जब मालूम पड़ेगा, तभी ‘जय जगत’ होगा। इसलिए हमें सभी की फिक्र होनी चाहिए। अगर हम अपनी ही चिंता करें, तो ‘जय जगत’ नहीं होगा।” (विनोबा, जय जगत, पृ.सं.46)
अतः जब तक यह भावना व्यापक स्तर पर नहीं फैलती, जब तक लोग यह नहीं समझते कि सभी का कल्याण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, तब तक ‘जय जगत’ का सपना साकार नहीं हो सकता।
राष्ट्रीय से जागतिक दृष्टिकोण

विनोबा जी व्यक्तिगत स्वार्थ, जातीय स्वार्थ, और यहाँ तक कि राष्ट्रीय स्वार्थ को भी एक सीमा के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, राष्ट्रीय नेता भी सामान्य व्यक्ति की ही तरह राग, द्वेष जैसे मानवीय दोषों से मुक्त नहीं होते, फर्क सिर्फ इतना है कि उनके दोषों का प्रभाव व्यापक पैमाने पर होता है।
अतः विनोबा जी मानव स्वभाव की कमियों को बेहतर समझते थे और इन कमियों को दूर करने के लिए वैश्विक चेतना की आवश्यकता पर बल देते थे। उनका भूदान आंदोलन भी इसी विचार का प्रतीक है।
वह इसे केवल राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि जागतिक (वैश्विक) आंदोलन के रूप में देखते थे। इस विषय में खुद विनोबा जी कहते हैं:
“मैं अपने भूदान काम को राष्ट्रीय आंदोलन मानता ही नहीं, जागतिक आंदोलन मानता हूँ।” (विनोबा, जय जगत, पृ.सं.46)
बाबा के भूदान आंदोलन में जमीन का दान लेकर उसे जरूरतमंदों में बाँटना ही नहीं था, यानि इसके पीछे की भावना केवल भूमि वितरण तक सीमित नहीं थी। यह प्रतीक था त्याग और समानता का, जो विश्व स्तर पर लागू हो सके।
यानि, समस्याओं का समाधान तभी संभव है, जब हम अपने को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में रखकर सोचें और कार्य करें।
नफरत नहीं, मोहब्बत का पैगाम
इसी भूदान आंदोलन के समय आचार्य विनोबा ने जम्मू-कश्मीर यात्रा के दौरान, अपने प्रवचन में बताया था कि नफरत का रास्ता हार कश्मीर, हार हिन्द और हार जगत की ओर ले जाता है।
वे नफरत को ऐसी विनाशकारी शक्ति के रूप में देखते हैं, जो न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि सामुदायिक व वैश्विक स्तर पर भी विनाश का कारण बनती है।
वे कहते हैं:
“आप एक-दूसरे से प्यार करने के बजाय नफरत करते रहेंगे, तो ‘जय जगत’ कैसे होगा? तब न ‘जय जगत’ होगा न ‘जय हिन्द’ और न ‘जय कश्मीर’।” (आचार्य विनोबा, मोहब्बत का पैगाम, पृ.सं.96)
आज की चुनौतियाँ और जय जगत
जैसा कि हम सभी महसूस कर रहे हैं कि आज का विश्व अनेक गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिनमें धार्मिक कट्टरता की आग, जातिगत, भाषागत व सामुदायिक संघर्ष की दीवारें, राष्ट्रीय सीमाओं की बाधाएँ और उससे गहराती खाइयाँ आदि प्रमुख हैं।
इन चुनौतियों का समाधान करना और विश्व को सुरक्षित, शांतिमय व सौहार्दपूर्ण बनाना हम सभी की जिम्मेदारी है।
ऐसे में विनोबा जी का ‘जय जगत’ कौल, प्रकाश-स्तंभ की तरह हमारा मार्गदर्शन करता है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारी पहचान केवल स्थानीय या समुदाय विशेष तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि हमें वैश्विक नागरिक के रूप में सोचना और व्यवहार करना चाहिए।
यदि हम इस दृष्टिकोण को अपनाते हैं, तो ही इन समस्याओं का समाधान संभव है और हम शांतिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण दुनिया की ओर बढ़ सकते हैं।
जय जगत पुकारे जा – कविता की पुकार
बाबा के इसी विचार ने कवि हूँदराज दुखायल को भी ऐसा प्रभावित किया कि उन्होंने ‘जय जगत पुकारे जा’ जैसी प्रसिद्ध कविता लिख डाली।
यह कविता क्या है, एक पुकार ही है, जो कहती है, जहाँ व्यक्तिगत सुख को त्यागकर सबके हित की सोच को प्राथमिकता मिले, वहीं जय जगत का विचार होता है।
इस कविता के प्रारंभिक पंक्ति में ही कवि दुखायल विश्व की जयकार और शांति के लिए आत्म-बलिदान की अपील करते हैं। अहिंसा और शांति के लिए सर्वस्व न्योछावर की बात करते हैं।
एक नज़ीर देखिए –
“जय जगत पुकारे जा, सिर अमन पे वारे जा,
सबके हित के वास्ते, अपना सुख बिसारे जा।
प्रेम की पुकार हो, सबका सबसे प्यार हो,
जीत हो जहान की, क्यो किसी की हार हो।
न्याय का विधान हो, सबका हक समान हो,
सबकी अपनी हो जमीन, सबका आसमान हो।”
शायद! यह कविता विनोबा जी के दिल के करीब थी, तभी तो 11 सितंबर, 1982 को, अपने जन्मदिन के मौके पर उन्होंने इसे पढ़ा। (इसके बाद 15 नवम्बर, 1982 को उनका देहावसान ही हो जाता है।)
वे कहते हैं –
आज बाबा की देह का जन्मदिन है। जयंती बाबा की नही, बाबा के देह की है। मणि पूछ रही है, आपका जन्मदिन कब है? बाबा का जन्म ही नही होता है। आज सभा में क्या बोला बाबा ? –
जय जगत, जय जगत, जय जगत पुकारे जा, सिर अमन पे वारे जा, सबके हित के वास्ते, अपना सुख बिसारे जा।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में शोधार्थी है।)