कलम और तलवार भाग ३

हुकूमत की परिभाषा और गांधीजी का आत्मनिरीक्षण

गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के दौरान एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि क्या हमें ‘अंग्रेज दबंगों की सेवकई’ के बदले ‘भारतीय सेवकों की दबंगई’ क़ुबूल होगी? यदि नहीं, तो हमें अपनी नीति, रणनीति और प्रक्रिया के जरिये यह साबित करना होगा कि हमारा वर्तमान संघर्ष किस उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है। यही उद्देश्य इस अदृश्य सवाल का जवाब होगा कि हमारी हुकूमत कैसी होगी। इस संदर्भ में गांधीजी ने नवंबर 1921 में आत्मनिरीक्षण करते हुए एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने अपने नेतृत्व की कमियों और खामियों को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि कई लोगों ने उनसे यह चिंता व्यक्त की थी कि अगर जनवरी तक स्वराज्य न मिला और वे जेल से बाहर रहें, तो उन्हें आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए।

गांधीजी ने स्वीकार किया कि भाषा कभी-कभी मनुष्य के विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में सक्षम नहीं होती, खासकर जब विचार स्वयं उलझे हुए या अपूर्ण हों। उन्होंने देखा कि उनके लेख को लोगों ने गलत समझा और उसे उनके पूर्ण-पुरुष होने की छवि के साथ जोड़कर देखा। उन्होंने लिखा कि वह केवल सत्य के अन्वेषक हैं और सत्य तक पहुंचने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। लेकिन वह यह भी मानते हैं कि उन्होंने अभी तक पूर्ण सत्य प्राप्त नहीं किया है। उन्होंने कहा कि पूर्ण सत्य को समझना अपने आप को पहचानना और त्रुटिहीन बन जाना है। अपनी कमियों की जानकारी और उन्हें सुधारने की कोशिश ही उनकी असली शक्ति है।

गांधीजी का स्वराज और नेतृत्व का दृष्टिकोण

गांधीजी ने लिखा कि यदि वे पूर्ण पुरुष होते, तो पड़ोसियों के कष्ट देखकर पीड़ा का अनुभव नहीं करते। उनका कर्तव्य होता कि वे उन कष्टों का उपाय बताकर उन्हें दूर कर देते। लेकिन सत्य को केवल धुंधले कांच के पीछे से देखने की स्थिति में होने के कारण उन्हें लोगों को समझाने में धीमे और श्रमसाध्य तरीके अपनाने पड़ते हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि वे सदा सफल नहीं हो पाते। उन्होंने कहा कि आज भारत के करोड़ों लोग कष्ट में हैं और अगर वह उनकी पीड़ा महसूस नहीं करते, तो स्वयं को इंसान नहीं मान सकते। लेकिन उन्हें यह आशा है कि जनता का कष्ट धीरे-धीरे कम होता जाएगा।

गांधीजी ने यह भी कहा कि यदि उनके प्रयासों के बावजूद जनता चरखे और अहिंसा के महत्व को न समझे और उनके कार्यक्रम के प्रति विश्वास न दिखाए, तो उन्हें अपने नेतृत्व की उपयुक्तता पर सवाल उठाना चाहिए। ऐसी स्थिति में, उन्हें विनम्रतापूर्वक ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उनके इस व्यर्थ शरीर को उठा ले और उन्हें सेवा का कोई और उपयुक्त माध्यम बना दे।

गांधीजी का स्वराज का दर्शन

स्वराज गांधीजी के लिए केवल सत्ता परिवर्तन नहीं था। उनका मानना था कि यह जनता के हृदय-परिवर्तन का प्रतीक होना चाहिए। उन्होंने कहा कि छुआछूत, वैर-भाव और आर्थिक दासता जैसी समस्याओं से मुक्त हुए बिना स्वराज अधूरा है। उन्होंने चरखे को आर्थिक स्वतंत्रता का माध्यम बताया और अहिंसा को स्वराज प्राप्त करने का सबसे प्रभावी साधन। उनके अनुसार, जब जनता इस कार्यक्रम को समझ-बूझकर स्वीकार करेगी, तब सत्ता-हस्तांतरण उतना ही स्वाभाविक होगा जितना सही तरीके से बोए गए बीज का वृक्ष बन जाना।

गांधीजी ने यह भी कहा कि स्वराज की प्राप्ति का सार तभी होगा, जब जनता इसे अपनी समझ और संकल्प के आधार पर स्वीकार करेगी। उनका विश्वास था कि जनता का स्वेच्छा से इस कार्यक्रम को अपनाना वास्तविक स्वराज होगा।

गांधीजी का नेतृत्व और निष्काम कर्म

गांधीजी ने निष्काम कर्म को जीवन का आदर्श बताया। उन्होंने कहा कि सत्य की खोज में लगे रहना और गलती का एहसास होने पर उसे स्वीकार करना सच्चे नेतृत्व का गुण है। उन्होंने यह भी कहा कि नेतृत्व का मोह तभी रखना चाहिए, जब व्यक्ति उसमें सक्षम हो। उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की कि वे ईश्वर के हाथों में गीली मिट्टी की तरह बनें, ताकि उनकी सेवा में उनका व्यक्तित्व बाधक न बने।

जॉन लारेंस की मूर्ति का स्थानांतरण

सर जॉन लारेंस की मूर्ति, जो कभी लाहौर उच्च न्यायालय के बाहर खड़ी थी, ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी बनी। पाकिस्तान के लेखक और पत्रकार माजिद शेख के अनुसार, भगत सिंह की फांसी के बाद की उथल-पुथल के दौरान इसे हटाकर लाहौर संग्रहालय में रख दिया गया। इसके बाद इसे शिमला ले जाया गया और 1946 में ब्रिटेन स्थानांतरित कर दिया गया। वर्तमान में यह आयरलैंड के डेरी शहर में स्थित है, जहां से जॉन लारेंस आए थे।

निष्कर्ष: स्वराज की दिशा और उद्देश्य

गांधीजी का आत्मनिरीक्षण और उनके विचार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नैतिक और वैचारिक दिशा प्रदान करते हैं। उन्होंने न केवल स्वराज के भौतिक स्वरूप पर ध्यान केंद्रित किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि स्वतंत्रता जनता के हृदय-परिवर्तन के माध्यम से प्राप्त हो। जॉन लारेंस की मूर्ति का विरोध केवल एक प्रतीकात्मक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह इस बात का प्रमाण था कि जनता अपनी स्वतंत्रता के लिए न केवल ब्रिटिश शासन को हटाना चाहती थी, बल्कि एक न्यायसंगत और सेवा-आधारित शासन स्थापित करना चाहती थी। गांधीजी का यह दृष्टिकोण स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों और आदर्शों को गहराई से परिभाषित करता है।

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