इतिहास का यह पन्ना थोड़ा लंबा है। इसलिए धीरज रखकर पढ़िए। पढ़ने में कुल पांच छह मिनट लगेंगे, लेकिन लगभग डेढ़ सौ साल पहले संयुक्त भारत के लाहौर में घटी यह घटना, सविनय अवज्ञा के सिद्धांत और अहिंसा के आदर्श की एक एक परत खोलती है। भारत की आज़ादी के गांधीप्रणीत ये दो आयुध कैसे और किस विधि से मार करते थे, किस मैकेनिज्म से प्रतिद्वंद्वी के मन पर कब्जा करते थे, यह समझने के लिए इतिहास का यह पन्ना एक पूरे अध्याय की तरह खुलता है।
जॉन लारेंस की मूर्ति और उसका प्रतीकात्मक महत्व
1880 के आसपास लाहौर के माल रोड पर सर जॉन लारेंस की आदमकद मूर्ति स्थापित की गई। जॉन लारेंस, पंजाब के पहले गवर्नर और 1864 से 1869 तक ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल रहे। मूर्ति के दाएं हाथ में कलम और बाएं हाथ में तलवार थी। इसके नीचे खुदा हुआ था, “तुम कलम की हुकूमत चाहते हो या तलवार की?” यह मूर्ति लाहौर हाईकोर्ट के बाहर खड़ी की गई थी और इसे नगरपालिका की संपत्ति घोषित किया गया था। जनता के लिए यह मूर्ति ब्रिटिश शासन के अत्याचार और उनकी हुकूमत के दमनकारी स्वरूप का प्रतीक बन गई। हालांकि, उस समय लोगों में आत्मसम्मान और विरोध की भावना उतनी प्रबल नहीं थी, लेकिन मूर्ति को लेकर असंतोष धीरे-धीरे बढ़ने लगा। 25 साल बाद, किसी ने इस मूर्ति को जूतों की माला पहनाई, जिससे जनता के भीतर के विरोध की झलक दिखाई दी।
असहयोग आंदोलन और मूर्ति का विरोध
1921-22 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। गांधीजी ने इसे ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक विरोध के रूप में प्रस्तुत किया। यह आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने के लिए था। लाहौर में भी इस आंदोलन की छाया पड़ी, और जॉन लारेंस की मूर्ति को हटाने का मुद्दा राष्ट्रीय असंतोष का प्रतीक बन गया। लाहौर की नगरपालिका ने मूर्ति हटाने का प्रस्ताव पास किया और इसे टाउन हॉल में रखने का निर्णय लिया। हालांकि, ब्रिटिश प्रशासन ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। डिप्टी कमिश्नर ने पुलिस की मदद से मूर्ति हटाने की प्रक्रिया को रोक दिया, जिससे जनता का आक्रोश और गहरा गया।
सत्याग्रह और अहिंसा की रणनीति
गांधीजी ने मूर्ति हटाने की प्रक्रिया को आंदोलन का हिस्सा बनाते हुए इसे सत्याग्रह के माध्यम से शांतिपूर्ण ढंग से करने का आह्वान किया। उन्होंने जनता को निर्देश दिया कि कोई भी व्यक्ति चोरी-छिपे या रात के अंधेरे में मूर्ति हटाने का प्रयास न करे। यह कार्य सार्वजनिक रूप से, सरकार को सूचित करके और पूरी पारदर्शिता के साथ किया जाना चाहिए। गांधीजी ने इस बात पर जोर दिया कि सत्याग्रही को पूरी शांति और अनुशासन बनाए रखना चाहिए। हिंसा या अपशब्दों का प्रयोग आंदोलन को कमजोर करता है। उन्होंने सत्याग्रहियों से अपील की कि वे संगीनों के सामने डटकर अपनी गिरफ्तारी दें, लेकिन अहिंसा का पालन करें।
लाहौर की घटना का राष्ट्रीय महत्व
लाहौर में मूर्ति हटाने का यह आंदोलन केवल स्थानीय घटना नहीं रहा। यह राष्ट्रीय असहयोग आंदोलन का प्रतीक बन गया। गांधीजी ने इसे जनता के आत्मसम्मान और सामूहिक शक्ति को जागृत करने का माध्यम बनाया। आंदोलन के दौरान पूरे देश में गिरफ्तारियों का सिलसिला तेज हो गया। भाषण देने, नाटक खेलने, और पिकेटिंग जैसे कार्यों के लिए लोग बड़ी संख्या में गिरफ्तार हुए। लेकिन इन गिरफ्तारियों ने आंदोलन को कमजोर करने के बजाय जनता की एकजुटता को और मजबूत किया।
सविनय अवज्ञा और अनुशासन का महत्व
गांधीजी ने सविनय अवज्ञा के महत्व को समझाते हुए कहा कि यह केवल कानून का उल्लंघन नहीं है, बल्कि अन्याय का शांतिपूर्ण विरोध है। उन्होंने जनता से कहा कि यह आंदोलन अनुशासन और आत्मसंयम पर आधारित है। उन्होंने चेतावनी दी कि अराजकता और अव्यवस्था आंदोलन की सफलता को बाधित कर सकती है। सत्याग्रह का उद्देश्य केवल मूर्ति हटाना नहीं, बल्कि अन्याय और दमनकारी सत्ता का विरोध करना था। गांधीजी ने जनता को शांति और नियम-पालन के महत्व को समझाया, ताकि आंदोलन एक आदर्श उदाहरण बन सके।
गांधीजी का संदेश और आंदोलन की दिशा
गांधीजी ने मूर्ति के नीचे लिखे वाक्य “तुम कलम की हुकूमत चाहते हो या तलवार की?” को चुनौती देते हुए जनता से यह विचार करने का आग्रह किया कि वे किस प्रकार की सरकार चाहते हैं। उन्होंने कहा कि भारत न तो तलवार की हुकूमत चाहता है और न ही कलम की, बल्कि वह सेवा और न्याय पर आधारित शासन चाहता है। गांधीजी ने स्पष्ट किया कि असहयोग आंदोलन केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं है, बल्कि हर प्रकार की दासता और अन्याय के खिलाफ है।
निष्कर्ष: सत्याग्रह की शक्ति
लाहौर में जॉन लारेंस की मूर्ति के खिलाफ आंदोलन राष्ट्रीय असहयोग आंदोलन का प्रतीक बन गया। गांधीजी ने इसे अनुशासन, शांति और अहिंसा के माध्यम से जनता की सामूहिक शक्ति को जागृत करने का माध्यम बनाया। यह आंदोलन केवल मूर्ति हटाने तक सीमित नहीं था, बल्कि यह स्वतंत्रता के बाद के भारत के लिए एक नैतिक और वैचारिक दिशा तय करने का माध्यम भी था। गांधीजी का यह नेतृत्व जनता को यह समझाने में सफल रहा कि असहयोग आंदोलन की सफलता केवल अनुशासन और शांति पर निर्भर करती है। इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और इसे एक नैतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया।