सर्व सेवा संघ
गांधी की एक विरासत को उजाड़ने की कहानी
भाग-१
बापू की हत्या के बाद 1948 में विनोबा ने सर्व सेवा संघ का गठन किया था. गांधी विचार प्रचार के उद्देश्य से वाराणसी में उसका प्रकाशन विभाग खोला गया. लगभग 13 एकड़ भूमि उत्तर रेलवे से खरीदकर प्रकाशन विभाग का परिसर खड़ा किया गया. भूमि की यह खरीदी बतौर रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम के कार्यकाल में की गयी. इस प्रक्रिया में लाल बहादुर शास्त्री और विनोबा स्वयं शामिल थे. लगभग छह दशकों के बाद केंद्र सरकार की सरपरस्ती में उत्तर रेलवे ने आरोप लगाया की सर्व सेवा संघ उक्त 13 एकड़ भूमि पर अवैध कब्जेदार है. भूमि के मालिकाने हक का मामला सर्व सेवा संघ की तरफ से अदालत में जेरे बहस है लेकिन इस बीच उत्तर रेलवे ने भारी पुलिस बल के साथ परिसर खाली ही नहीं कराया, उसे ध्वस्त भी कर डाला. इस पूरे मामले में घटी घटनाओं और कानूनी तथा ऐतिहासिक तथ्यों का वर्णन करने वाली यह अविकल रिपोर्ट एक दस्तावेज है. अपनी विरासत को वापस पाने के लिए गान्धीजन 11 सितम्बर से सौ दिन के क्रमिक उपवास सत्याग्रह पर हैं.
22 जुलाई 2023 को बेदखली की कार्यवाही के ठीक एक हफ्ते बाद 29 जुलाई को जब एक बार फिर उस तरफ जाना हुआ तो देखा कि सर्व सेवा संघ का परिसर उजाड़ हुआ पड़ा है. हज़ारों पेड़ उदास खड़े हैं, दीवारें पथराई हुई हैं, बापू और उनके तीनों बंदर मौन खड़े उन भवनों को निर्निमेष देखे जाते हैं, जिन भवनों में सर्व सेवा संघ का इतिहास, 63 सालों की विरासत और विनोबा से लेकर जेपी तक, दादा धर्माधिकारी से लेकर नारायण भाई देसाई तक, धीरेंद्र मजूमदार से लेकर आचार्य राममूर्ति तक, बिमला ठकार से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र तक और राममनोहर लोहिया से लेकर सिद्धराज ढड्ढा तथा ठाकुरदास बंग तक की कहानियां और परंपराएं जिंदा ही दफन कर दी गई हैं. विनोबा की कुटी और जेपी की प्रतिमा अपने वर्तमान को घटित होते मौनमूक महसूस कर रहे हों जैसे.
इस परिसर में पुलिस का 24 घंटे पहरा है. पूरे परिसर में फटी हुई किताबों के पन्ने, आनन-फानन में भगाए गए परिवारों के घरों के सामने पड़े कूड़े के ढेर, जगह-जगह बैठे पुलिसियों की टोलियां, दरवाजों में पड़े ताले, परिसर की दीवारों पर लिखी कालजयी काव्य पंक्तियों और महापुरुषों की तस्वीरों के ऊपर पोता हुआ पेंट; अब इस परिसर की यही पहचान है और तमामतर दूसरी आशंकाओं से भरे आने वाले कल की विरासत भी अब शायद यही है.
एक प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर कहूं तो 22 जुलाई को जो कुछ हुआ, वह यह कि सर्व सेवा संघ की इस जमीन पर मालकियत का मामला अनेक स्तरों पर, देश की विभिन्न अदालतों में आज भी लंबित है. सिविल जज (सीनियर डिवीजन) वाराणसी की अदालत में तो सिविल सूट का वाद दाखिल है. सभी पक्षों को अदालत की नोटिस भी सर्व हो चुकी है. 28 जुलाई को उसकी तारीख भी थी.
इस बीच हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वाराणसी की अदालत में दायर मुकदमे में इन्जंक्शन एप्लीकेशन भी दाखिल किया जा चुका था, जिस पर 21 जुलाई को सुनवाई थी लेकिन अदालत से संबंधित किसी स्टाफ की आकस्मिक मृत्यु के कारण वह सुनवाई टल गई और अगली तारीख 24 जुलाई को पड़ी थी. इसी बीच 22 जुलाई की अलस्सुबह 6 बजते-बजते जिला प्रशासन के अधिकारियों के संरक्षण में उत्तर रेलवे के अधिकारियों का दल यूपी पुलिस, पीएसी, आरपीएफ, सीआरपीएफ और रैपिड एक्शन फोर्स के लगभग डेढ़ हजार जवानों के साथ परिसर में इस तरह दाखिल हुए, जैसे दुश्मन देश के साथ लगी किसी खतरनाक सीमा पर मोर्चा लगाने के लिए सेना लामबंद हो रही हो.
फायर ब्रिगेड की गाड़ियों, एम्बुलेंस वाहनों और विशालकाय पोकलैंड मशीनों के साथ हजारों सिर, हजारों हेलमेट, हजारों सेफगार्ड, हज़ारों लाठियों और सैकड़ों अत्याधुनिक हथियारों से लैस ये स्त्री पुरुष वर्दीधारी जवान लगभग 13 एकड़ के परिसर के हर कोने में फैल गए.
अचकचाए हुए परिसरवासियों में से अनेक तो अभी सोकर उठे भी नहीं थे. बात जब समझ में आने लगी तो प्रतिरोध शुरू हुआ. गांधीजन वहीं मुख्य गेट के अंदर धरने पर बैठ गए. परिवारों ने अफसरों से मोहलत मांगी, वो नहीं मिली. उनका कहना था कि आप लोग बाहर आ जाइए, हम लोग सब कर लेंगे. अरे, बिजली का मिस्त्री बुलाना होगा! बोले, हम लेकर आए हैं. सामान ले जाने के लिए गाड़ी बुलानी होगी! बोले, हम लेकर आए हैं. और हुआ वही कि दो तीन घंटों में परिसर के सभी परिवारों के सामान निकालकर घरों के बाहर लगभग फेंक दिए गए.
रेलवे अधिकारी आकाशदीप सिंह ने कहा कि अब आपलोग जल्दी से परिसर छोड़ दीजिए, वरना हमने पोकलैंड मशीनें मंगवा रखी हैं. अभी इसी वक्त ध्वस्तीकरण होगा, आपके सामान नुकसान होंगे. बदहवास परिसरवासी जब तक परिसर छोड़ते, तब तक आठ आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिए गए और देखते-देखते परिसर, परिसरवासियों से खाली हो गया.
अब बची सबसे बड़ी चिंता; सर्व सेवा संघ प्रकाशन की पिछले 63 सालों में प्रकाशित लगभग ढाई करोड़ की संख्या में रखी हुई किताबों का जखीरा, लाइब्रेरी में रखी लाखों बहुमूल्य पुस्तकें, ऑफिस के दर्जनों कंम्प्यूटर, सर्वोदय जगत, भूदान यज्ञ आदि पुरानी पत्रिकाओं की सैकड़ों फाइलें, संगठन के दस्तावेज और जरूरी ऑफिशियल रिकॉर्ड. सरकारी अमला बिल्कुल भी समय नहीं देना चाहता था. उनके साथ आए लोगों ने यह सब कुछ निकालकर बाहर खड़ी बापू की प्रतिमा के पांवों में रखना शुरू कर दिया. अधिकारी गांधी, विनोबा, जेपी आदि महापुरुषों के चित्रों और किताबों पर पांव रखकर चलने लगे.
जब किताबों का सवाल आया तो प्रशासन ने कूड़ा ढोने वाले ट्रक उपलब्ध कराए और उन्हीं ट्रकों में किताबें भर भरकर सड़क पर खड़े किए जाने लगे. नागेपुर गांव और सारनाथ में अलग-अलग की गई व्यवस्थाओं के मुताबिक ये किताबें ले जाकर डंप कर दी गईं, जिन्हें हफ्ते भर बाद प्रकाशन के कार्यकर्ताओं के हाथों अब फिर से संवारा, सहेजा जा रहा है.
इस पूरी प्रक्रिया में एक अनुमान के मुताबिक़ लगभग 25 प्रतिशत बहुमूल्य और अब अनुपलब्ध गांधी साहित्य नष्ट हो गया. सारे परिवार, सारे कार्यकर्ता और सारे पदाधिकारी, आंदोलनकारी शहर में जैसे-तैसे बिखर गए और बेतहाशा खर्चों में पड़ गए. यह अजाब गुजर जाने के बाद स्थिति यह हुई कि १२ अगस्त 2023 की सुबह सुबह ही पूरे परिसर को ध्वस्त करने की कार्यवाही शुरू हो गयी. हफ्तों तक चले इस अवैध ध्वस्तीकरण अभियान में परिसर स्थित सभी ऐतिहासिक भवन मिटटी में मिला दिए गये. एक बार फिर प्रतिरोध हुआ और एक बार फिर गिरफ्तारियां हुईं और उसी शाम सभी रिहा कर दिए गये. तकरीबन डेढ़ साल बीत जाने के बाद आज आंदोलन की फ्रीक्वेंसी जरूर थोड़ी कम हुई है, लेकिन तीव्रता में कोई कमी नहीं आई है. क़ानून और आंदोलन; इन दोनों मोर्चों पर सरकार और सिस्टम के खिलाफ यह लड़ाई अभी भी जारी है.
परिसर के निर्माण का इतिहास
राजघाट, वाराणसी स्थित सर्व सेवा संघ का यह परिसर पुराने जीटी रोड और वरुणा नदी के बीच स्थित है. सर्व सेवा संघ का मुख्यालय सेवाग्राम, वर्धा में है. महात्मा गांधी की हत्या के बाद मार्च 1948 में विनोबा के नेतृत्व में सेवाग्राम में हुए एक सम्मेलन में सर्व सेवा संघ की स्थापना की गई थी.
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी उस सम्मेलन में शामिल थे. इसके दो तीन साल बाद यह चर्चा चली कि संघ का अपना प्रकाशन होना चाहिए. सुप्रसिद्ध जमनालाल बजाज परिवार के सदस्य और अनन्य गोप्रेमी राधाकृष्ण बजाज की बेटी नंदिनी मेहता लिखती हैं कि तब धीरेंद्र मजूमदार सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष और अन्ना साहब सहस्रबुद्धे मंत्री थे. धीरेंद्र मजूमदार के आग्रह पर प्रकाशन विभाग का काम सर्वसहमति से राधाकृष्ण बजाज को सौंपा गया. उस समय बनारस में एक प्रकाशन चलता था. उसके मालिक रामकृष्ण जी उसे बेचना चाहते थे. राधाकृष्ण बजाज ने उसे 5 हजार में खरीद लिया. इसका दफ्तर वाराणसी के गोलघर क्षेत्र में था.
भूदान आंदोलन के विकास के साथ साथ आंदोलन का कम ठीक से चलाने के लिए एक व्यवस्थित कार्यालय की ज़रूरत महसूस हो रही थी. ज़मीन के लिए काशी नरेश से भी संपर्क किया गया लेकिन बात नही बनी. राजघाट से आते जाते राधाकृष्ण बजाज के ध्यान में आया कि गंगा पुल के इस पार कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के पास काशी रेलवे स्टेशन के पीछे कुछ खाली ज़मीन पड़ी है. ज़मीन क्या थी- 50-50 फीट के गहरे गड्ढों से पटा हुआ एक विस्तार था. इन गड्ढों में वरुणा का पानी भर जाता था. कुछ ऊंचाई वाली जगहों पर पहलवानों के अखाड़े थे. बाकी बची जगह का उपयोग सार्वजनिक शौचालय की तरह किया जाता था.
राधाकृष्ण बजाज के साथी थे सदाशिव राव गोडसे. उन्होंने राधाकृष्ण बजाज की सहमति लेकर उस जमीन के लिए कोशिश शुरू कर दी. पहले तो यही पता करना टेढ़ी खीर साबित हुआ कि यह जमीन है किसकी. सरकारी रिकॉर्ड्स में बहुत सिर खपाने के बाद ज़मीन रेलवे की ठहराई गई, लेकिन रेलवे ने कहा कि यह ज़मीन हमारे रिकॉर्ड में है ही नहीं तो आपको कैसे दें.
रेलवे बोर्ड को नक्शा दिखाया गया और बार-बार समझाया गया कि आप ही उस ज़मीन के मालिक हैं, लेकिन गाड़ी नीचे तक खिसकती ही नही थी. उनके लिए रिश्वत का यह अच्छा मौका था और इधर इन लोगों को रिश्वत देनी नहीं थी, उसके बाद रेल मंत्रालय से लेकर रेलवे बोर्ड तक का इतना चक्कर चला कि कोई गिनती नहीं. उस ज़मीन को प्राप्त करने में गोडसे जी ने अद्भुत पराक्रम दिखाया. बरसों की सतत भागदौड़ के बाद गड्ढों और गंदगी से भरा हुआ ज़मीन का यह टुकड़ा मिला. वहां गुंडों के अड्डे भी थे. उन सबको हटाने में तरह तरह की धमकियों, बद्तमीज़ियों और जोखिम का सामना करना पड़ा.
ज़मीन मिली तो नई बाधाएं शुरू हुईं. उन विशाल गड्ढों को पाटना बहुत बड़ा काम था और पैसे कम से कम खर्च करने थे. इसके लिए एक तरकीब निकली गई. वाराणसी शहर के कूड़े-कचरे के ट्रक वहां लाकर गड्ढे पाटे जाने लगे. इसके बाद पुरातत्व विभाग ने ज़ोरदार आपत्ति जताई. यहां लाल खां का रौजा है, जो पुरातत्व विभाग के अधीन है. उनकी आपत्ति थी कि यहां पक्के मकान न बनाए जाएं. बड़े प्रयासों और कई दौर की बातचीत के बाद पुरातत्व विभाग ने एक एकड़ जमीन पर मकान बनाने की इजाज़त दी.
इसके बाद नगर परिषद के टाउन प्लानिंग विभाग ने आपत्ति उठाई कि यह जमीन पोली है. किसी तरह एक मंजिल मकान बनाने की इजाजत मिली. जब मकान बन गया तब सबसे पहले यहां सर्व सेवा संघ का दफ्तर लाया गया. उस जमाने में यही परिसर सर्व सेवा संघ का मुख्य केंद्र था. प्रकाशन विभाग यहां बाद में आया. इस परिसर को साधना केंद्र नाम दिया गया.
शंकरराव देव, नारायण देसाई, कृष्णराज मेहता, सिद्धराज ढड्ढा, दादा धर्माधिकारी, बिमला ठकार आदि इस केंद्र के प्रथम रहवासी थे. जेपी जब भी बनारस आते तो यहीं रुकते. लेखक जैनेन्द्र कुमार और अच्युत पटवर्धन भी यहीं रुकते थे.
(12.9 एकड़ के हरे-भरे परिसर में बसे सर्व सेवा संघ के निर्माण की यह कहानी राधाकृष्ण बजाज और अनुसूया बजाज की जीवनी ‘जाको राखे गोमैया’ से उद्धृत है. जीवनी की लेखक नंदिनी मेहता, राधाकृष्ण बजाज और अनुसूया बजाज की पुत्री हैं. जीवनी में उन्होंने राधाकृष्ण बजाज के लिए पिताजी शब्द का प्रयोग किया है. इस रिपोर्ट में पिताजी की जगह राधाकृष्ण बजाज लिखा गया है.)
नारायण भाई देसाई के सुपुत्र और वाराणसी निवासी समाजवादी जन परिषद के नेता अफलातून देसाई बताते हैं, ‘1960 से 1970 के बीच किसी वर्ष में वक्फ बोर्ड ने इस जमीन पर पहला मुकदमा किया और अपना हक जताया. उस मामले में इलाहबाद हाईकोर्ट में रेलवे ने बाहलफ सर्व सेवा संघ के पक्ष में अपना बयान दिया और कोर्ट से सर्व सेवा संघ के पक्ष में फैसला आया. उस समय का नक्शा और नक़्शे में दर्ज सर्व सेवा संघ के नाम जमीन का पूरा ब्योरा वाराणसी की अदालत में जमा करवाया गया है.’
उन्होंने यह भी बताया कि इसी परिसर के एक हिस्से में सर्व सेवा संघ की जमीन पर ही जेपी ने गांधी विद्या संस्थान की स्थापना की थी, जो 1998 में शुरू हुए विवाद की वजह से बंद चल रहा है. सर्व सेवा संघ की जमीन का मौजूदा मामला तब गरम हुआ, जब 15 मई 2023 को अचानक पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने यहां आकर गांधी विद्या संस्थान के कमरों के ताले तुड़वा दिए और उसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के मुखिया हैं, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं.
रेलवे ने रजिस्ट्री की थी यह जमीन
लोकतंत्र सेनानी और उत्तर प्रदेश सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष रामधीरज कहते हैं, ‘साक्ष्य के तौर पर हमारे पास इस जमीन की रजिस्ट्री के तीनों दस्तावेज मौजूद हैं. विनोबा भावे और जेपी की पहल पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की संस्तुति के बाद रेलवे ने पूरी कीमत लेकर 12.898 एकड़ जमीन सर्व सेवा संघ को बेची थी. सर्व सेवा संघ के नाम रजिस्ट्री बाद में हुई, जमीनों की कीमत पहले चुकाई गई थी.’
उन्होंने बताया, ‘सबसे पहले 5 मई 1960 को चालान संख्या 171 के जरिये भारतीय स्टेट बैंक में 27 हजार 730 रुपये जमा किए गए थे. इसके अलावा 750 रुपये का स्टांप शुल्क भी अदा किया गया था. इसके बाद 27 अप्रैल 1961 को 3,240 रुपये और 18 जनवरी 1968 को 4,485 रुपये चालान संख्या क्रमशः 03 और 31 के जरिये स्टेट बैंक में जमा किया गया. उस समय यह रकम बहुत बड़ी थी. राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की संस्तुति के बाद तत्कालीन रेल मंत्री जगजीवन राम ने जनहित के आधार पर रेलवे की जमीन सर्व सेवा संघ को बेचने की संस्तुति दी थी.’